ॐ श्री महा गणेशाय नमः
यह जानकार आपको शायद झटका लगेगा की हमने अपनी देशी गायों को गली-गली आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया है । क्यूंकी वे दूध कम देती हैं । इसलिए उनका आर्थिक मोल कम है , लेकिन ब्राज़ील हमारी इन देशी गायो की नस्ल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है । जबकि भारत अमेरिका और यूरोप से घरेलू दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए विदेशी प्रजाती की गायों का आयात करता है । वास्तव मे 3 महत्वपूर्ण भारतीय प्रजाती गिर, कंकरेज , व ओंगल की गाय जर्सी गाय से भी अधिक दूध देती हैं । यंहा तक की भारतीय प्रजाती की गाये होलेस्टेन फ्राइजीयन जैसी विदेशी प्रजाती की गाय से भी ज्यादा दूध देती है । और भारत विदेशी प्रजाती की गाय का आयात करता है जिनकी रोगो से लड़ने की क्षमता ( वर्ण संकर जाती के कारण ) भी बहुत कम होती है । हाल ही मे ब्राज़ील मे दुग्ध उत्पादन की प्रतियोगिता हुई थी जिसमे भारतीय प्रजाती की गिर ने गाय एक दिन मे 48 लीटर दूध दिया । तीन दिन तक चली इस प्रतियोगिता मे दूसरा स्थान भी भारतीय प्राजाती की गाय गिर को ही प्राप्त हुआ । इस गाय ने एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया । तीसरा स्थान भी आंध्रप्रदेश के ओंगल नस्ल की गाय ( जिसे ब्राज़ील मे नेरोल कहा जाता है ) को मिला उसने भी एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया ।
केवल ज्यादा दुग्ध उत्पादन की ही बात क्यूँ करे ? भारतीय नस्ल की गाय स्थानीय महोल मे अच्छी तरह ढली हुई हैं वे भीषण गर्मी भी सह सकती हैं । उन्हे कम पानी चाहिए , वे दूर तक चल सकती हैं । वे अनेक संक्रामक रोगो का मुक़ाबला कर सकती हैं । अगर उन्हे सही खुराक और सही परिवेश मिले तो वे उच्च उत्पादक भी बन सकती हैं । हमारी देशी गयो मे ओमेगा -6 फेटी एसीड्स होता है जो केंसर नियंत्रण मे सहायक होता है । विडम्बना देखिए ओमेगा -6 के लिए एक बड़ा उद्योग विकसित हो गया है जो इसे केपसूल की शक्ल मे बेच रहा है । , जबकि यह तत्व हमारी गायो के दूध मे स्वाभाविक ( हमारे पूर्वज ऋषियों द्वारा विकसित कहना ज्यादा सही होगा ) रूप से विद्यमान है । आयातित गायो मे इस तत्व का नामोनिशान भी नही होता । न्यूजीलेंड के वेज्ञानिकों ने पाया है की पश्चिमी नस्ल की गायो के दूध मे ' बेटा केसो मार्फीन ' नामक मिश्रण होता है । जिसकी वजह से अल्जाइमर ( स्मृती लोप ) और पार्किसन जैसे रोग होते हैं ।
इतना ही नही भारतीय नस्ल की गायो का गोबर भी आयातित गयो की तुलना मे श्रेष्ठ है । जो एसा पंचागभ्य तैयार करने के अनुकूल है जो रासायनिक खादों से भी बेहतर विकल्प है । पिछली सदी के अंत मे ब्राज़ील ने भारतीय पशुधन का आयात किया था । ब्राज़ील गई गायो मे गुजरात की गिर और कंकरेज नस्ल तथा आन्ध्रप्रदेश की ओंगल नस्ल की गाय शामिल थी । इन गायों को मांस के लिए ब्राज़ील ले जाया गया था । लेकिन जब वे ब्राज़ील पहुची तो वंहा के लोगो को एहसास हुआ की इन गायों मे कुछ खास है ।
अगर भारत मे विदेशी जहरीली वर्ण संकर नस्ल की गायों के बजाय भारतीय नस्ल की गायो पर ध्यान दिया होता तो हमारी गायें न केवल आर्थिक रूप से व्यावहारिक होती बल्कि हमारे यंहा की खेती और फसल की दशा भी व्यावहारिक व लाभदायक होती । मरुभूमि के अत्यंत कठिन माहोल मे रहने वाली थारपारकर जैसी नस्ल की गाये उपेक्षित न होती । आज दुग्ध उत्पादन ही नही प्रत्येक क्षेत्र मे आत्म निर्भरता प्राप्त करने के लिए विदेशी नस्ल ( मलेच्च्यो-मुसालेबीमान व किसाई ) और उनके सहायक चापलूस हन्दुओ से ज्यादा विनाशकारी और कुछ नही हो सकता ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है की भारतीय सारकर हर क्षेत्र मे पूर्व निर्धारित षड्यंत्र के तहत गलत नीती अपनाकर चल रही है
यह जानकार आपको शायद झटका लगेगा की हमने अपनी देशी गायों को गली-गली आवारा घूमने के लिए छोड़ दिया है । क्यूंकी वे दूध कम देती हैं । इसलिए उनका आर्थिक मोल कम है , लेकिन ब्राज़ील हमारी इन देशी गायो की नस्ल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है । जबकि भारत अमेरिका और यूरोप से घरेलू दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए विदेशी प्रजाती की गायों का आयात करता है । वास्तव मे 3 महत्वपूर्ण भारतीय प्रजाती गिर, कंकरेज , व ओंगल की गाय जर्सी गाय से भी अधिक दूध देती हैं । यंहा तक की भारतीय प्रजाती की गाये होलेस्टेन फ्राइजीयन जैसी विदेशी प्रजाती की गाय से भी ज्यादा दूध देती है । और भारत विदेशी प्रजाती की गाय का आयात करता है जिनकी रोगो से लड़ने की क्षमता ( वर्ण संकर जाती के कारण ) भी बहुत कम होती है । हाल ही मे ब्राज़ील मे दुग्ध उत्पादन की प्रतियोगिता हुई थी जिसमे भारतीय प्रजाती की गिर ने गाय एक दिन मे 48 लीटर दूध दिया । तीन दिन तक चली इस प्रतियोगिता मे दूसरा स्थान भी भारतीय प्राजाती की गाय गिर को ही प्राप्त हुआ । इस गाय ने एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया । तीसरा स्थान भी आंध्रप्रदेश के ओंगल नस्ल की गाय ( जिसे ब्राज़ील मे नेरोल कहा जाता है ) को मिला उसने भी एक दिन मे 45 लीटर दूध दिया ।
केवल ज्यादा दुग्ध उत्पादन की ही बात क्यूँ करे ? भारतीय नस्ल की गाय स्थानीय महोल मे अच्छी तरह ढली हुई हैं वे भीषण गर्मी भी सह सकती हैं । उन्हे कम पानी चाहिए , वे दूर तक चल सकती हैं । वे अनेक संक्रामक रोगो का मुक़ाबला कर सकती हैं । अगर उन्हे सही खुराक और सही परिवेश मिले तो वे उच्च उत्पादक भी बन सकती हैं । हमारी देशी गयो मे ओमेगा -6 फेटी एसीड्स होता है जो केंसर नियंत्रण मे सहायक होता है । विडम्बना देखिए ओमेगा -6 के लिए एक बड़ा उद्योग विकसित हो गया है जो इसे केपसूल की शक्ल मे बेच रहा है । , जबकि यह तत्व हमारी गायो के दूध मे स्वाभाविक ( हमारे पूर्वज ऋषियों द्वारा विकसित कहना ज्यादा सही होगा ) रूप से विद्यमान है । आयातित गायो मे इस तत्व का नामोनिशान भी नही होता । न्यूजीलेंड के वेज्ञानिकों ने पाया है की पश्चिमी नस्ल की गायो के दूध मे ' बेटा केसो मार्फीन ' नामक मिश्रण होता है । जिसकी वजह से अल्जाइमर ( स्मृती लोप ) और पार्किसन जैसे रोग होते हैं ।
इतना ही नही भारतीय नस्ल की गायो का गोबर भी आयातित गयो की तुलना मे श्रेष्ठ है । जो एसा पंचागभ्य तैयार करने के अनुकूल है जो रासायनिक खादों से भी बेहतर विकल्प है । पिछली सदी के अंत मे ब्राज़ील ने भारतीय पशुधन का आयात किया था । ब्राज़ील गई गायो मे गुजरात की गिर और कंकरेज नस्ल तथा आन्ध्रप्रदेश की ओंगल नस्ल की गाय शामिल थी । इन गायों को मांस के लिए ब्राज़ील ले जाया गया था । लेकिन जब वे ब्राज़ील पहुची तो वंहा के लोगो को एहसास हुआ की इन गायों मे कुछ खास है ।
अगर भारत मे विदेशी जहरीली वर्ण संकर नस्ल की गायों के बजाय भारतीय नस्ल की गायो पर ध्यान दिया होता तो हमारी गायें न केवल आर्थिक रूप से व्यावहारिक होती बल्कि हमारे यंहा की खेती और फसल की दशा भी व्यावहारिक व लाभदायक होती । मरुभूमि के अत्यंत कठिन माहोल मे रहने वाली थारपारकर जैसी नस्ल की गाये उपेक्षित न होती । आज दुग्ध उत्पादन ही नही प्रत्येक क्षेत्र मे आत्म निर्भरता प्राप्त करने के लिए विदेशी नस्ल ( मलेच्च्यो-मुसालेबीमान व किसाई ) और उनके सहायक चापलूस हन्दुओ से ज्यादा विनाशकारी और कुछ नही हो सकता ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है की भारतीय सारकर हर क्षेत्र मे पूर्व निर्धारित षड्यंत्र के तहत गलत नीती अपनाकर चल रही है
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