गुरुवार, 18 नवंबर 2010

ब्रह्म को साकार और निराकार दोनों कहे जाने के पीछे कारण


                                                अनंतकोटी ब्रहमाण्डनायक श्री महागणेशजी को मेरा शत शत नमन


आज हर धर्म मे दो प्रकार के संप्रदाय है । जो साकार ब्रह्म को मानते हैं वो निराकार ब्रह्म को भी मानते हैं परंतु जो निराकार ब्रह्म को मानते हैं वो साकार ब्रह्म की नही मानते और पलट इसकी आलोचना भी करते हैं ।इस तरह हर धर्म मे हैं । हिंदुओं मे आर्य ,जैन मे स्वेतांबर और दिगंबर ,मुस्लिमो मे सिया सुन्नी एसे ही ईसाइयों मे भी हैं सब कंही न कंही हिन्दू धर्म का अंश रह चुके हैं इस बात का प्रमाण सभी धर्मो के धर्मग्रंथों मे मिलता है। मै यंहा सिर्फ उन हिंदुओं को जो आर्य समाज को मानते हैं । यह पूछता हूँ की हमको तो विश्वास है ब्रह्म के साकार और निराकार दोनों होने का और हम प्रमाणित भी कर सकते हैं पर क्या वो प्रमाणित कर सकते हैं की सिर्फ निराकार ब्रह्म है , कभी नही कर सकते । उन्होने सिर्फ वेदों की एक बात पकडली है "निराकार ब्रह्म "उसके आगे न कुछ बता सकते न ही प्रमाणित कर सकते हैं । परंतु मै यंहा ब्रह्म को जिसको वेद और शास्त्रों मे पूरी तरह समझाया गया है ब्रह्म किसको कहा गया है ब्रह्म मे तीन गुणो का होना कहा गया है 1.उतपत्ती 2.जीवन 3.लय या मिट्जाना या समाप्त हो जाना इसी आधार पर औंकार को ब्रह्म (शब्द ब्रह्म) कहा गया है अ ,उ,म यंहा 'अ' उतपत्ती दिखाता है ,'उ' जीवन दिखाता है और 'म' लय होना दिखाता है इसी प्रकार ब्रह्म का स्वरूप हैं श्री ब्रह्माजी जो उतपत्ती को दिखाते है ,श्री विष्णुजी जीवन को दिखाते हैं और श्री शंकरजी प्रलय, काल ,लय या मौत को दिखाते हैं हमारे ब्रह्मांड का विस्तार अनंत है और प्रत्येक जगह यह तीनों गुण मिलते हैं तो ब्रह्म का साकार रूप तो प्रमाणित हो ही जाता है इसी तरह सूक्छ्मता भी अनंत है और सुक्छ्म से सुक्छ्म मे भी यही गुण है अर्थात वंहा भी ब्रह्म हैं इसी अनंतता के कारण ब्रह्म को निराकार कहा गया है यंहा वेदों और शास्त्रों के अनुसार यह बात प्रमाणित होती है की जिनको हम देख उसके हैं वंहा यह गुण होने के कारण ब्रह्म हैं इसलिए साकार हैं और जिनका हम अनुमान नही लगा उसके या गड़ना नही कर सकते वो निराकार और निर्गुण हैं इसी कारण यही जाता है की "अहम ब्रह्मास्मि" यानि मै ब्रह्म के समान हूँ क्योंकि मेरा भी जन्म होता है ,मै भी जीवन जीता हूँ,और मेरा लय भी होता है। यही आत्म ज्ञान भी है कई लोगों को इस बात से ही इतना घमंड हो जाता है की वो स्वयंम को ही ब्रह्म मानने लगते हैं परंतु ऐसा नही है हर ब्रह्म के ऊपर भी महाब्रह्म है हर शिव के ऊपर महा शिव है और हर विष्णु के ऊपर महाविष्णु है और इस क्रम का विस्तार और सुक्छ्म्ता दोनों अनंत हैं मै यंहा यह कहना चाहता हूँ की जिन वेदों के आधार पर आप निराकार ब्रह्म को मानते हो उन्ही वेदों के आधार पर आप साकार को क्यों नही मानते हैं क्यों वेदों और शास्त्रों के शब्दों को तोड़ते मरोड़ते हो क्यों लोगों को भ्रमित करते हो । शायद यह वे लोग है जो लंबे और कठोर प्रयत्न नही करना चाहते ,नियमो मे नही बंधना चाहते अशंतोषी, असन्तुष्ट हैं यह लोग । परंतु जैसे भी हैं किसी न किसी रूप मे ब्रह्म को मानते हैं और हमको उनके द्वारा किसी भी रूप मे ब्रह्म को माने जाने पर कोई भी आपत्ती नही है ,आपत्ती है तो बस इस बात पर की सगुण ब्रह्म या मूर्ति पूजा मे दोष न निकालें ।



जय हो

राष्ट्रपति के गुण


                                              सर्वप्रथम अनंतकोटी ब्र्म्हांडनायक श्री महागणेशजी को मेरा शत शत नमन 



                                                        श्री गणपतीजी  (राष्ट्रपति) वो ही व्यक्ति बन सकता है जिसमे श्री  गणपतीजी  जैसे गुण हों अर्थात उसका सिर हाथी जैसा हो और धड़ मनुष्य जैसा जैसे हाथी कभी जोश मे नही आता ,यदि किसी कारण से वो जोश मे आ भी जाता है तो उसका जोश कभी खाली भी नही जाता । श्री गणपतीजी  का वाहन मूषक है जैसे मूषक अपने बिल मे गुप्त रहता है उसी तरह राष्ट्रपति की योजनाए भी गुप ही रहना चाहिए जब मूषक किसी वस्तु को नष्ट करता है तो वो सबसे पहले उसकी जड़ों को काट देता है उसी तरह राष्ट्रपति को भी विपक्छी राष्ट्रों की जड़ों को काट देना चाहिए प्रचार द्वारा उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवी को धूमिल कर देना चाहिए श्री गनपतीजी के कान बड़े बड़े हैं अर्थात वो यह बताते हैं की सबकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनो और बड़ा सर यानी अपनी बूद्धी से निर्णय ले ,छोटी-छोटी आँखें बताती है की सब पर राष्ट्रपति की सुक्छ्म द्र्श्टी हो।  लंबी नाक बताती है की खतरे को बहुत पहले ही सूंघ लिया जाए और तेज बूद्धी से उसका हल निकाला जाए ,बड़े बड़े दाँत का अर्थ है की शत्रुओं को भयभीत करने के लिए शक्ति का प्रदर्शन किया जाए परंतु जो वास्तविक शक्ति है जिससे उसका पूरी तरह नाश किया जा सकता है उसका प्रदर्शन न किया जाए श्री  गणपतीजी  की दो पत्नियाँ है रिद्धी-सिद्धी इसका अर्थ है जब राष्ट्रपति मे श्री गणपतीजी  के समान गुणो का विकास होगा  तो सारा देश जन धन से सम्पन्न हो जाएगा और रिद्धी-सिद्धी जैसे अर्धांग्नी-अनुचरि पत्नियाँ स्वयं श्री गणपतीजी (राष्ट्रपति) की सेवा करने लगेंगी और कुशल और क्छेम पुत्र बनकर स्वयं सम्पूर्ण समाज के कुशल क्छेम के लिए कार्य करने लगेंगी और भोतिक समरदधी और अन्तः शांति और अव्र्च्नीय आनंद से जन क्रत-क्रत्य हो उठेंगे .परिणाम स्वरूप राष्ट्र के श्री गणपतीजी -राष्ट्रपति की  स्तुती के जयकारों से दीग-दिगंत  गूंज उठेंगे  जिसकी प्रतिध्वनी लगातार गूँजती रहेगी।  किसी भी परिवार या समूह के नेता या स्वामी मे भी  इसी तरह के गुण होना चाहिए      

अनंतकोटी ब्र्म्हांडनायक श्री महागणेशजी के भावी कलयुगी अवतार धूम्रकेतु के जन्म के समय की देश व समाज की दशा का वर्णन


                                                    सर्वप्रथम अनंतकोटी ब्र्म्हांडनायक श्री महागणेशजी को शत-शत नमन


                                                                        श्री गणेशजी का कलयुगी भावी अवतार 'धूम्रकेतु' के नाम से विख्यात होगा । उस समय देश समाज की कैसी परिसतिथी रहेगी ,इसका दिग्दर्शन गणेशपुरण 149 वें अध्याय मे इस प्रकार कहा गया है- कलियुग मे प्रायः सभी आचार भ्रष्ट व मिथ्या भाषी हो जाएंगे । ब्रामहन वेदध्यान व संध्यावंदन आदी कर्म त्याग देंगे । यज्ज्ञादी और दान कंही नही होगा । परदोष दर्शन और परनिंदा व परस्त्री अपमान सभी करने लग जाएंगे । सर्वत्र विश्वासघात होने लगेगा । मेघ समय पर वर्षा नही करेंगे। क्रषक नदियों के तट पर खेती करेंगे । बलवान दुर्बल का धन छीन लेंगे और उनसे बलवान उनकी संपाती का हरण करेंगे । ब्रामहन शूद्र कर्म करने लग जाएंगे । और शूद्र वेद पाठ करने लगेंगे छत्रिय वेश्यों के और वेश्य शूद्रों के कर्म करने लग जाएंगे। ब्रामहन चांडाल का प्रतिग्रह स्वीकार करने लग जाएंगे। प्रायः सभी मूढ़ और दरिद्र होंगे। सर्वत्र हाहाकार मच जाएगा। कलयुगी मनुष्य दूसरे का धन लेकर भी शपथपूर्वक अस्वीकार कर देंगे। सभी लोग परधन की याचना करने वाले होंगे परधन स्वीकार करने मे लज्जा व संकोच का अनुभव नही करेंगे। उत्कोच लेकर मिथ्या साक्छी देने मे लोगों को तनिक भी झिझक व आत्मग्लानि नही होगी । लोग सज्जनों की निंदा और दुष्टों से मैत्री करेंगे। सज्जनों का उत्तछेद व दुर्जनो का उत्कर्ष होगा । ब्रामहन मांसाहारी हो जाएंगे। मनुष्य देवताओं को त्यागकर इंद्रिय सुख मे तल्लीन रहेंगे। वे भूत प्रेत और पिशाच की पूजा करने लगेंगे। नाना प्रकार के वेश बनाकर दंभ पूर्वक उदर पूर्ति का यत्न करेंगे। छत्रिय अपने धर्म का पालन छोडकर भिछाटन करने लग जाएंगे। व्रत नियम आचरण सभी लुप्त हो जाएंगे। संतान वर्ण संकर होगी। घोर कली के उपस्थित होने पर साध्वी स्त्रियाँ अपने व्रत से भ्रष्ट हो जाएंगी। पर धन हरण करने वाली सभी मनुष्य मलेछ्य प्रायः हो जाएंगे। वे कुमार्गगामी होंगे । प्रथवी के उर्वरा शक्ती नष्ट हो जाएगी और वृक्ष रसहीन हो जाएंगे। 5 और 6 वर्ष की कनयाए प्रसव करने लगेंगी। उस समय स्त्री पुरुषों की पूर्णायु 16 वर्ष की होगी। देवता और तीर्थ लुप्त हो जाएंगे। धनार्जन ही प्रधान धर्म होगा। इस प्रकार सर्वत्र अधर्म,अनीति,अत्याचार और दुराचार का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। ईर्ष्या ,द्वेष और मानसिक ज्वाला से सभी जलते रहेंगे। कली की अत्यंत दारुण दशाका विवेचन संभव नही है । उस समय स्वाहा स्वधा और वषटकार कर्म न होने से देवगन उपवास करने लगेंगे। वे अत्यंत भयभीत होकर देवधिदेव श्री गजाननज़ी  की शरण मे जाएंगे। फिर विविध प्रकार से उन सर्वविघ्नविनाशन श्री गजाननजी प्रभु का स्तवन कर उन्हे बारम्बार नमस्कार करेंगे। तब कली के अंत मे सर्वदुखहरण परम प्रभु गजानन धारा धाम पर अवतरित होंगे । उनका शूपकर्ण और धूम्रवर्ण नाम प्रसिद्ध होगा (नास्त्रेडमस के अनुसार वरन या शरण से मिलता जुलता नाम) क्रोध के कारण उन परम तेजस्वी प्रभु के शरीर से ज्वाला निकलती रहेगी । वे नीले अश्व पर आरूढ़ होंगे। उन परम प्रभु के हाथ मे शत्रु संहारक तीक्छ्न्तम खड़ग होगा । वे अपनी इच्छानुसार नाना प्रकार के सैनिक व बहुमूल्य अमोघ शस्त्राष्ट्रों का निर्माण कर लेंगे (स्वचालित रोबोट या उपकरण ) । मलेछ्य(पश्चिमी सभ्यता) या मलेछ्य जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्यों का निश्चय ही परम प्रभु धूम्रकेतु संहार कर देंगे। उन धर्म संस्थापक प्रभु के नेत्रो से अग्नि वर्षा होती रहेगी । वे सर्वाधार सर्वात्मा प्रभु धूम्रकेतु उस समय गिरि कन्दराओ व अरण्यों मे छिपके जीवन व्यतीत करने वाले पूर्ण वैदिक व शुद्ध ब्रांहनों को बुलाकर सम्मानित करेंगे। और वे करुणामय,धर्ममूर्ती,शूर्पकर्ण उन सत्पुरुषों को सधर्म व सत्कर्म के पालन के लिए प्रेरणा व प्रोत्साहन प्रदान करेंगे। फिर सबके द्वारा धर्माचरण संपादित होगा और धर्म मय सत्ययुग का शुभारंभ हो जाएगा ।

ब्रह्मांड पुराण क़े अनुसार मलेछ्य-वंशीय (मुस्लिम और ईसाई ) राजाओं का वर्णन तथा मलेच्या-भाषा आदि का संछिप्त परिचय


                                                                          ॐ शक्ति साहिताय श्री आदि गनेशाय नमः 

श्री शौनकजी ने पूछा :- त्रिकालज्ञ महामुने प्र्द्धोत ने कैसे मलेछ्य-यज्ञ किया ?मुझे वह सब बतलाए ।

श्री सूतजी ने कहा:- महमूने किसी समय क्षेमक के पुत्र प्रद्दोत हस्तीनपुर मे विराजमान थे । उस समय नारदजी वंहा आए । उनको देखकर प्रसन्न हो राजा प्र्द्धोत ने विधिवत उनकी पूजा की । सुखपूर्वक बैठे हुये मुनि ने राजा प्रद्दोत से कहा -'मलेछ्यो के द्वारा मारे गए तुम्हारे पिता यमलोक को चले गए हैं । मलेछ्य यज्ञ के प्रभाव से उनकी नरक से मुक्क्ती होगी और उन्हे स्वर्गीय गती प्राप्त होग़ी यह सुनकर राजा प्रद्धोत की आँखें क्रोध से लाल हो गई । तब उन्होने वेदज्ञ ब्राह्मणो को बुलाकर कुरुच्चेत्र मे मलेछ्य-यज्ञ तत्काल आरंभ करा दिया । सोलह योजन मे चतुष्कोण यज्ञ-कुंड का निर्माण कराकर देवताओं का आव्हान कर मलेछ्यो का हनन किया ।ब्रांहनों को दक्छिना देकर अभिषेक कराया । इस यज्ञ के प्रभाव से उनके पिता छेमक स्वर्गलोक चले गए । तभी से राजा प्रद्धोत मलेछ्य-हंता (मलेच्च्योन को मरने वाले) नाम से प्रसिद्ध हो गए ।

मलेच्छया रूप मे स्वयंम कली ने ही राज्य किया था । अनंतर कली ने अपनी पत्नी के साथ श्री नारायण की पूजा कर दिव्य स्तुती की ;स्तुती से प्रसन्न होकर श्री नारायण प्रगत हो गए । कली ने उनसे कहा-'हे नाथ !राजा वेदवान के पिता प्रद्धोत ने मेरे स्थान का विनाश कर दिया है और मेरे प्रिय मलेछ्यो को नष्ट कर दिया है ।'

श्री भगवानजी  ने :- कले ! कई कारणो से तुम अन्य युगों की अपेछा श्रेस्ठ हो । अनेक रूपों को धरकर मे तुम्हारी इच्छा को पूर्ण करूंगा । आदम नाम के पुरुष और हव्यवती (हौवा) नाम की पत्नी से मलेछ्य वंश की व्रद्धी करने वाले उत्पन्न होंगे । यह कहकर श्री हरी अंतर्ध्यान हो गए और कली को इससे बहुत आनंद हुआ । उसने नीलांचल पर्वत पर आकार कुछ दिनो तक निवास किया ।

राजा वेदवान को सुनंद नाम है पुत्र हुआ और बिना संतति के ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया और धीरे-धीरे मलेछ्यो का बल बदने लगा । तब नेमिषारण्य निवासी 88 हजार ऋषि मुनि हिमालय पर चले गए और वे बद्री छेत्र मे  आकार भगवान विष्णु की कथा-वार्ता मे संलप्त हो गए ।

श्री सूतजी ने पुनः कहा :-मुने ! द्वापर युग के 16हजार वर्ष शेष काल मे आर्य देश की भूमि अनेक कीर्तियों से समन्वित रही ;पर इतने समय मे कंही शूद्र और कंही वर्णसंकर राजा भी हुये । 8200 वर्ष पूर्व द्वापर युग के शेष रह जाने पर यह भूमि मलेछ्य देश के राजाओ के प्रभाव मे आने लग गई थी । मलेछ्यो का आदि पुरुष आदम ,उसकी श्त्री हव्यवती (हौवा) दोनों इंद्रिय दमन कर ध्यान पारायण रहते थे । ईश्वर ने प्रदान नगर के पूर्व भाग मे चार कोस वाला एक रमनीय महावन का निर्माण किया । पापव्रक्छ के नीचे जाकर कलियुग सर्परूप धरण कर होवा के पास आया । उस धूर्त कली ने धोका देकर होवा को गूलर के पत्तों मे लपेटकर दूषित वायुयुक्त फल उसे खिला दिया ,जिसके कारण श्री हरी विष्णुजी की आज्ञा भंग हो गई । इससे अनेक पुत्र हुये ,जो सभी मलेछ्य कहलाए ।आदम पत्नी के साथ स्वर्ग चला गया । उसका श्वेत नाम से विख्यात पुत्र हुआ, जिसकी 112 वर्ष की आयु कही गई है । उसका पुत्र अनूह हुआ ,जिसने अपने पिता से कुछ कम ही वर्ष शाशन किया । उसका पुत्र कीनाश था ,जिसने पितामह के समान राज्य किया ।महाललाल नाम का उसका पुत्र हुआ । उसका पुत्र मानगर हुआ। उसको विरद नाम का पुत्र हुआ।और अपने नाम से नगर बसाया ।उसका पुत्र भगवान श्री हरी विष्णुजी का भक्ति परायण हनुक हुआ। फलों मनगर हवन कर उसने अध्यात्मतत्व मनगर ज्ञान प्राप्त किया । वह धर्म परायण मलेछ्य शासरीर स्वर्ग गया । इसने द्विजों ( ज्ञानी ,पंडितों) के आचार-विचार क़ा पालन किया ।फिर भी विद्वानो द्वारा वह मलेछ्य ही कहा गया । मुनियों के द्वारा विष्णुभक्ति, अग्निपूजा ,अहिंसा, तपस्या और इंद्रिय दमन मलेछ्यो के धर्म कहे गए हैं ।हनुक क़ा पुत्र मतोच्छिल हुआ । उसका पुत्र लोमक हुआ , अंत मे उसने स्वर्ग प्राप्त किया । तदन्तर उसका न्यूह नाम क़ा पुत्र हुआ ,न्यूह के सम,शीम और भाव नाम के तीन पुत्र हुये । न्यूह अध्यात्म परायण तथा भगवान श्री हरी विष्णुजी क़ा भक्त था । किसी समय उसने स्वप्न मे भगवान श्री हरी विष्णुजी क़ा दर्शन प्राप्त क़िया और उन्होने न्यूह से कहा  -'वत्स ! सुनो ,आज से सतवे दिन प्रलय होगा । हे भक्त श्रेष्ठ ! तुम सभी लोगो के साथ नाव पर चड्कर अपने जीवन की रक्छा करना । फिर तुम बहुत विख्यात व्यक्ति बन जाओगे । भगवान की बात मानकर उसने एक सूदरद नोका क़ा निर्माण कराया , जो तीन सो हाथ लंबी ,पचास हाथ चोड़ी और तीस हाथ ऊंची थी । और सभी जीवो से समन्वित थी । भगवान श्री स्वप्न विष्णुजी के ध्यान मे तत्पर होता हुआ वह अपने वंशजो के साथ उस नाव पर चड़ गया ।इसी बीच इन्द्र देव ने चालीस दिनो तक लगातार मूसलाधार व्रष्टी कराई ।सम्पूर्ण भारत सागरों के जल से प्लावित हो गया ।चारो सागर मिल गए , प्रथवी डूब गई ,पर हिमालय पर्वत का बद्री क्षेत्र 
पानी से ऊपर ही रहा , वह नही डूबा पाया । 88 हजार ब्रह्मवादी मुनी-गण ,अपने शिष्यों के वंही स्थिर और सुरक्छित रहे । न्यूह भी अपनी नोका के साथ वंही आकार बच गए । संसार के शेष सभी प्राणी विनष्ट हो गए ।उस समय मुनियों ने भगवान श्री हरी विष्णुजी की माया की स्तुती की ।       

मुनियो ने कहा- 'महाकाली को नमस्कार है , माता देवी को नमस्कार है ,भगवान श्री हरी विष्णुजी की पत्नी महालक्ष्मीजी को ,राधा देविजी को  और रेवतीजी ,पुष्पवतीजी तथा स्वर्णवातीजी को नमस्कार है । देवी कामाक्षीजी, मायाजी और माताजी को नमस्कार है । महावायु के  प्रभाव से ,मेघो के  भयंकर शब्द से ,व उग्र जल की धाराओ से । दारुण भय उत्पन्न हो गया है ।  देवी भैरवीजी  !आप इस भय से हम किंकोरोन की रकछा करो । ' देविजी ने प्रसन्न होकर जल की व्रद्धी को तुरंत शांत कर दिया । हिमालय की प्रांतवारती शिषिणा नाम की भूमी एक वर्ष मे जल क़े  हट जाने पर स्थल क़े रूप मे दीखने लगी थी । न्यूह अपने वंशजो क़े साथ उस भूमि पर आकार निवास करने लगा ।

शौनकजी ने कहा - मुनीश्वर ! प्रलय क़े बाद इस समय जो कुछ वर्तमान है ,उसे अपनी दिवि द्रश्ती क़े प्रभाव से जानकार बतलाए ।

सुतजी बोले- शौनक !न्यूह नाम का पूर्व निर्दिष्ट मलेछ्य राजा भगवान श्री विष्णुजी क़े भकती मे लीन रहने लगा,इससे प्रसन्न होकार भगवान ने उसके वंश की व्रद्धी की । उसने वेद वाक्य और संस्कृत से बहिर्भूत मलेछ्य भाषा का विस्तार किया । और कली की व्रद्धी क़े लिए ब्राह्मी* भाषा को अपशब्दावली भाषा बनाया और उसने अपने तीनों पुत्र -सीम शाम और भाव क़े नाम क्रमशः सिम ,हाम  और याकूत रख दिये ।याकूत क़े सात पुत्र हुये-जुम्र ,माजूज ,मादी,यूनान,तुवलों,सक,तथा तीरास ।  इशी की नाम पर अलग-अलग देश प्रसिद्ध हुये । जुम्र क़े दस पुत्र हुये उनके नामो से भी देश प्रसिद्ध हैं ।यूनान की अलग-अलग साँटने । ईलीश,तरलीश,किती और हूदा -इन चरो नाम से उनके हुयी । तथा उनकी नाम से भी अलग-अलग देश बसे ।न्यूह एक द्वितीय पुत्र हाम (शम) क़े चार पुत्र कहे गए हैं-कुश,मिश्र,कुज,कनआ । इनके नाम से भी देश उनके हुये । कुश क़े छह पुत्र हुयी -सवा, हबील,सर्वात,उरगाम,सावटिका,और महाबली निमरुह । इनकी भी कलाँ,सिना,रोरक,अक्कड़ बावून और रसनादेशक आदी संताने हुयी । इतनी bate सुनाकर श्री सुतजी समाधिस्थ हो गए ।


बहुत वर्षो बाद उनकी समाधी खुली और वे कहने लगे -ऋषियों !अब न्यूह क़े ज्येष्ठ पुत्र राजा सिम क़े वंश का वर्णन करता हूँ ,मलेछ्य-राजा सिम ने 500 वर्षो तक भलीभती  राज्य किया । अर्क्न्सद उसका पुत्र था,जिसने 434 वर्षो तक राज्य किया । उसका पुत्र सिंहल हुआ ,उसने भी 460 वर्षो तक राज्य किया । उसका पुत्र इब्र हुआ ,उसने पिता क़े समान ही राज्य किया । उसका पुत्र फजल हुआ ,जिसने 240 सिंहल तक राज्य किया । उसका पुत्र राऊ हुआ उसने  237 सिंहल तक राज्य किया । उसके जुज़ नमक पुत्र हुआ ,पिता क़े समान ही उसने राज्य किया । उसका पुत्र नहुर हुआ ,उसने 160 वर्षॉ तक राज्य किया । नहुर का पुत्र ताहर हुआ ,उसने पिता क़े समान ही राज्य किया । उसके अविराम,नहुर और हरण तीन पुत्र हुये ।

हे मुने !इस प्रकार मीने नाममात्र से मलेछ्य राजाओ का वर्णन किया । देवी सरस्वतीजी क़े शाप से ये राजा मलेछ्य भाषा-भाषी हो गए ।और आचार मे अधम सिद्ध हुये ।कलियुग मे इनकी संख्या मे विशेष व्रद्धी हुयी । ,किन्तु मेने संछेप मे ही इन वंशो का वर्णन किया । संस्कृत *  भाषा भारत वर्ष मे ही किसी तरह बची रही (1) आँय भागो मे मलेछ्य भाषा ही आनंद देने वाली हुयी ।

सुतजी पुनः बोले -भार्गवतनय महमूने शौनक !तीन सहश्त्र वर्ष कलियुग क़े बीत जाने पर अवन्ती नागरी मे शंख नाम का राजा हुआ और मलेछ्य देशो मे शक नाम का राजा हुआ । इनकी अभिव्रद्धी का कारण सुनो । 2000 भार्गव कलियुग क़े बीत जाने पर मलेछ्य वंश की अधिक व्रद्धी हुयी और विश्व क़े अधिकांश भाग की भूमि मलेच्छया-मयी हो गई तथा भांति-भांति क़े मत चल पड़े ।सरस्वती का तट ब्रह्मावर्त-क्षेत्र ही शुद्ध बचा था । मूषा नाम का व्यक्ति मलेछ्यो का आचार्य और पूर्व पुरुष था । उसने अपने मत को सारे संसार मे फैलाया । कलियुग क़े आने से भारत मे देव-पूजा और वेद-भाषा प्रायः नष्ट हो गई । भारत मे भी धीरे-धीरे प्रकरत और मलेछ्य भाषा का प्रचार हुआ ।ब्रज भाषा और महार्श्त्री -ये प्राकरत भाषा क़े मुख्य भेद  हैं । यावनी और गुरुपिंडिका (अंग्रेजी ) मलेछ्य भाषा क़े मुख्य भेद हैं । इन भाषाओं क़े और भी 4 लाख सुक्छ्म भेद हैं ।प्राकरत मे पानी को पनीय और बुभुक्छा को भूख कहते हैं । इसी तरह मलेछ्य भाषा मे पीटर को पेतर-फादर और भ्राटर को बादर-ब्रदर कहते हैं । इसी प्रकार आहुती को आजू ,जानु को जेनू , रविवार को संडे ,फाल्गुन को फरवरी  और षष्ठी को सिक्स्टी कहते हैं ।भारत मे अयोध्या ,मथुरा ,काशी आदि पवित्र सात पुरिया हैं , उनमे भी भी अब हिंसा होने लग गई है । डाकू,शबर,भिल्ल तथा मूर्ख व्यक्ति भी आर्यदेश-भारतवर्ष मे भर गए हैं । मलेछ्य देश मे मलेछ्य-धर्म को मानने वाले सुख से रहते हैं ।यही कलियुग की विशेषता है ।भारत और इसके द्वीपो मे मलेछ्यो का राज्य रहेगा ,esaa समझकर हे मुनिश्रेष्ठ ! आपलोग हरी इसके भजन करें ।
(अध्याय 4/5)

*ब्राह्मी को लिपियो इसके मूल माना गया है ।राजा न्यूह क़े ह्रदय मे स्वयं भगवान श्री विष्णुजी ने उसकी बुद्धी को प्रेरित किया ,इसलिए उसने जो lipee को उल्टी गति से दाहिनी  से बाई और प्रकाशित किया । जो उर्दू ,अरबी,फारसी और हिब्रू लेखन-प्रक्रिया मे देखी जा सकती है ।

* पहले संस्कृत इसके पूरे विश्व मे प्रचार था ।बलीद्वीप मे अब भी इसका पूरा प्रचार है ।तथा सुमात्रा,जावा , जापान आदिम मे कुछ अंश मे इसका प्रचार है ।बोर्नियो,इंडोनेशिया,कंबोडिया और चीन मे भी बहुत पहले इसका प्रचार था । बीच मे संस्कृत की बहुत उपेक्छा हुयी । पर जर्मन ,रूस और ब्रिटेन क़े निवासियो क़े सतप्रयास से अब पुनः चीन सभी विश्व-विद्ध्यालयों मे अध्यापन होने लगा है । भारत मे ही इसकी उपेक्छा हो रही है । पश्चत्यों की वेज्ञानिक उन्नती मे संस्कृत इसके ही मुख्य योगदान रहा है । यूरोप की गोथ भाषा संस्कृत से बहुत मिलती है । सभी सभ्य भाषाओ क़े व्याकरण पर संस्कृत का गहरा प्रभाव है । मोनियर  विलियम तथा राजटर्नर ने अपने-अपने शब्दकोशो मे इसके अनेक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । 

वेद और शास्त्रनुसार विवाहों के भेद और इनसे जन्मी संतानों के गुण


                                                                                    ॐ श्री महागनेशाय नमः 

     चारो वर्णो के,इस लोक और परलोक के हिताहित के साधन करनेवाले 8 प्रकार के विवाह कहे गए हैं । ब्राह्म-विवाह ,देव-विवाह,आर्ष-विवाह,प्राजापत्य-विवाह,आसूर-विवाह,गंधर्व-विवाह,राक्छस विवाह,पिशाच विवाह।

(1) अच्छे-शील स्वभाव वाले उत्तमकुल के वर को स्वयं बुलाकर उसे अलंक्रत और पूजित करके कन्या देना  विवाह है ' ब्रांह्य-विवाह' है । 
(2) यज्ञ मे सम्यक प्रकार से कर्म करते हुये ऋषित्वज को अलंक्रत कर कन्या देना 'देव-विवाह' है ।
(3) वर से एक या दो जोड़े गाय-बैल धर्मार्थ लेकर विधी पूर्वक कन्या देने को 'आर्ष-विवाह' हैं ।
(4) 'तुम दोनों एक साथ ग्रहस्थ धर्म का पालन करो ' यह कहकर पूजन करके कन्या देने को ' प्राजापत्य विवाह' कहते हैं ।
(5) कन्या के पिता आदि को और कन्या को भी यथा-शक्ति धन देकर स्वछंदतापूर्वक कन्या का ग्रहण करना या संबंध बनाना 'आसूर-विवाह' है ।
(6) कन्या और वर की परस्पर इच्छा से जो विवाह या संबंध बनाना 'गंधर्व-विवाह' है ।
(7) मार-पीट करके रूठी-चिल्लाती हुयी, कन्या का अपहरण करके लाना या संबंध बनाना  'राक्छस-विवाह'  है ।
(8) सोयी हुयी,काम के मद से मतवाली ,या पागल कन्या से ,या गुप्त रूप से उठा ले आना या संबंध बनाना  'पिशाच-विवाह' है ।

    इसके अलावा भी एक विवाह है जिसमे मन ही मन किसी को पति या पत्नी मान लेना या संबंध बनाना  'मानस-विवाह' हैं ।     

   ब्राहम-विवाह से उत्पन्न धर्मचारी पुत्र (पुत्री मे आनुवंशिक गुण स्थायी रूप से सदा नही रह पाते कुछ ही पीड़ियों बाद वो लुप्त हो जाते हैं )  दस पीडी आगे और दस पीड़ी पीछे के कुलो का तथा 21 व अपना भी उद्धार ( उक्त कुल के सभी वंशो के आनुवंशिक गुणो को सक्रिय कर देता है और स्वयं के द्वारा विकसित गुणो का भी स्थायी रूप से समावेश  )करता है ।

   देव-विवाह से उत्पन्न पुत्र सात पीडी आगे तथा सात पीडी पीछे इस प्रकार 14 पीड़ियों का उद्धार करने वाला होता है ।

  आर्ष-विवाह से उत्पन्न पुत्र 3 अगले तथा 3 पिछले कुलो का इस करता है ।

  प्राजापत्य-विवाह से उत्पन्न पुत्र  6 पीछे तथा 6 आगे के कुलो को तारता है ।

  ऊपर के 4 विवाहो से उत्पन्न पुत्र ब्रह्म-तेज से सम्पन्न ,शीलवान, रूप, सत्वादीगुणो से युक्त ,धनवान, पुत्रवान ,यशशवी, धर्मिष्ठ और दीर्ध्जीवी होते हैं । शेष चार विवाहो से उतपन पुत्र क्रूर-स्वभाव धर्म-द्वेषी और मिथ्या-वादी होते है ।अनिंद्य विवाहो से संतान भी अनिंद्य होती है । निंदित विवाहो से निंदित संतान का ही जन्म होता है ।

संस्कृत के शब्दों मे आधुनिक उपकरणो के कारण होने वाली विक्रती और हो सकने वाले दुष्प्रभाव


                                                                                  ॐ श्री आदिगणेशाय नमः 

आज जगह जगह संस्कृत के मंत्रों ,श्लोकों ,और स्त्रोतों की सीडी ,डीवीडी आदी बाजार मे धड़ल्ले से बिक रही हैं और सब उनको सुन भी रहे हैं । परंतु वास्तव मे हमारे द्वारा बोले गए शब्दों और उन्ही शब्दों को किसी भी आधुनिक उपकरण द्वारा सुनने से होने वाले प्रभाव मे बहुत अंतर है ।यंहा मै दो चित्र दिखा रहा हूँ जिसमे पहले चित्र मे वह ध्वनि तरंग (साउंड वेव ) जो हमारे बोलने पर बनती है । और दूसरी वह है जिसको डिजिटल रूप मे बदलने के लिए परिवर्तित किया जाता है ताकि कम्प्युटर ,आई पॉड,एमपी 3 प्लेयर ,वीसीडी प्लेयर,डीवीडी प्लेयर आदी मे सुनने के लायक बनाया जा सके ।  जब कोई भी तरंग इस तरह विक्रत हो जाती है तो उसकी सुकछम छती को कोई भी पूरा नही कर सकता । हमे सुनने मे तो कोई भी अंतर नही मिलता परंतु अंतर तो होता है । जैसे हमारे घर मे उपयोग की जाने वाले बल्बों मे जो प्रकाश हमे एक जैसा प्रतीत होता है वो प्रकाश वास्तव मे 1 सेकेंड मे करीब 50 बार जलता और बुझता है विद्धुत के दबाव मे होने वाले परिवर्तन के कारण, उसी तरह संस्कृत के शब्दों मे आई विक्रति भी हमे समझ नही आती । परंतु जो प्रभाव किसी मनुष्य द्वारा बोले शब्दों का होता है वो किसी भी उपकरण के द्वारा सुने जाने पर प्रसारित किए जाने पर कभी नही हो सकता । शस्त्रों के अनुसार संस्कृत के शब्दों के उच्चारण,लय,तीव्रता  और समय जैसे कई बातों पर ज़ोर दिया गया है । तब इस तरह विक्रत ध्वनि तरंगों से युक्त संस्कृत के शब्दों का श्रवण करना मेरे अनुसार तो हानिकारक है । क्योंकी शास्त्रों के अनुसार भी संस्कृत के शब्दों के विक्रत उच्चारण ,लय आदी के दुष्प्रभावों को एक नही सभी को भोगना पड़ता है । हम सिर्फ भजन आदि को ही सुन सकते हैं एसे तो उसमे भी दोष होता है ।डिजिटल उपकरणो के बजाय पुराने लाउडस्पीकर आदी की ध्वनि तरंगें ज्यादा सही हैं क्योंकी वो सिर्फ उनको एम्प्लीफाई करती हैं बिना अधिक परिवर्तन के । परंतु फिर भी प्रत्यक्छ श्रवण की जाने वाली ध्वनि तरंग ही सबसे ज्यादा सही है । शास्त्रों मे वाणी के दोष बताए गए हैं जैसे कोइ बहुत ही कठोर वाणी मे या हकलाते हुये या अत्यधिक मीठी  बनावटी वाणी  मे उच्चारण करता है तब भी दोष होता है । आज संस्कृत के शब्दों ,मंत्रों को आधुनिक वाध्य यंत्रों के साथ रीमिक्स बनाकर और भी अधिक दोषपूर्ण बनाया जा रहा है ।   

शनिदेव का तेल से संबंध


                                                                        ॐ श्री शनिगनेशाय  नमः 

          शनिदेव(शनिग्रह) के चुमकीय तरंगें बहुत ही शक्तिशाली हैं , और उनका सबसे अधिक प्रभाव शनिदेव की धातु लोहे पर होता है । प्रत्येक जीव के शरीर मे लोह तत्व होता है ,तो शनि की चुम्बकीय तरंगों का प्रभाव होना स्वाभाविक है । ज्योतिष मे शनिदेव को रोग और दुख का कारण बताया गया है । तो मेरे अनुमान से जीवों के शरीर मे लोह तत्व ही रोगों का मुखय कारक होना चाहिए । इसको अभी मुझे बहुत समझना है । परंतु यह तो तय है की शनिदेव की चुम्बकीय तरंगें जीवों को प्रभावित करती हैं । और शनिदेव का तेल से यह संबंध है कि , तेल चुबकीय तरंगों को पाने पार नही जाने देता या चुम्बकीय तरंगों के रास्ते मे अवरोध उत्पन्न करता है । यदि  चुंबक  को तेल मे डूबा दिया जाय तो चुम्बकीय शक्ती पूरी तरह खत्म हो सकती है । यदि शनिदेव के दुष्प्रभाव से पीड़ित शरीर पर तेल की मालिश करे तो वो निश्चित ही शनिदेव के दुष्प्रभाव से बच सकता है । तेल का अन्य ग्रहों पर भी प्रभाव     


                                            तेलाभ्यंगे रवो तापः  सोमे शोभा कुजे मृतिः   ।
                                           बुधे धनं गुरो हानिः  शुक्रे दुखं शनों सुखं         । । 
                                           रवो पुष्पं गुरो दूर्वा भौमवारे तू म्रत्तिकाः         । 
                                           गोमयं शुक्रवारे च तेलाभ्यंगे न दोषभाक       । । 
                                           साषर्पं गंधतैलं च वत्तेलं पुष्पवासितं             । 
                                           अन्य द्र्व्ययुक्तं तेलं न दुष्यति कदाचन          । । (निर्णय सिंधु )

रविवार को तेल लगाने से ताप, सोमवार को शोभा ,भोमवार को म्रत्यु (आयु छीनता ), ,बुधवार को धन प्राप्ति ,गुरुवार को हानी ,शुक्रवार को दुखह शनिवार को सुख होता है । यदि निषिद्ध वारों मे तेल लगाना हो तो ,रविवार को पुष्प ,गुरुवार को दूर्वा, बोमवार को मिट्टी ,शुक्रवार क9ओ गोबर , तेल मे डालकर लगाने से दोष नही होता । गंधयुक्त पुष्पों से सुवासित ,अन्य पदार्थों से युक्त(आयुर्वेद के अनुसार),तथा सरसों का तेल दूषित नही होता । 

पुत्र

                                                                                    श्री महागणेशाय नमः 




एक बीज और एक पुत्र मे कोई अंतर नही होता बल्कि एक पुत्र बीज से बेहतर होता है । बीज सिर्फ उस जैसे ही दूसरे बीज को पैदा कर सकता है जबकि पुत्र मे कई पूर्वजो के गुणो का समावेश सदा रहता है । यदि वो अच्छे संस्कारो वाला है तो उसका मूल्य और भी अधिक है यदि इसके साथ-साथ वो अछे ,वंश कुल या वर्ण  का है तब उसका मूल्य और बड़ जाता है । कभी-कभी पुत्र अपने पूर्वजो के गुणो के विपरीत भी जन्म ले लेता है  तब भी इसका यह अर्थ नही है की वो गुणवान पुत्र का पिता नही हो सकता । वो सिर्फ अपने पूर्वजो के अशुभ गुणो के संयोग की अधिकता के कारण ही बुरा होता है । एसी दशा मे भी वो पूर्वजो के सभी गुणो का वाहक है । पिता को हमेशा धीरज नही होता वो चाहता है की उसका पुत्र जल्द से जल्द उस जैसा या उसके पूर्वजो के समान गुणो का विकास कर ले परंतु पुत्र को समय चाहिए होता है और पिता उसको यह देना नही चाहता जिस कारण दोनों मे एक दीवार बन जाती है । पिता उस पर दबाव बनाने लगता है । जो गलत है । मैंने  यह सिर्फ एसलिए लिखा है की पुत्र को पिता समझ सके  और उसको पूरा मोका दे । क्योंकि पिता पुत्र रह चुका होता है है जबकि पुत्र को यह समझना बाकी है । कोई जरूरी नही की पिता के गुणो के  ही समान पुत्र भी हो वो सिर्फ अपने पूर्वजो के गुणो के संयोग को सक्रिय रूप मे धरण करके जन्म लेता है और वो पूर्वजो के किन गुणो के संयोग को धरण करगा इस बात का निर्धारण उसके गर्भ मे आने से लेकर जन्म और युवा हने के समय तक के वैदिक,सामाजिक और पारिवारिक संस्कार करते हैं ।आज जिस तरह वेज्ञानिक पशुओ की या किसी बीज की ऊच्च जाती के विकास के लिए वर्षो बिता देते हैं उसी तरह हिंदुओं ने भी एक अच्छी और गुणवान हिन्दू जाती के विकास के लिए वर्ण व्यवस्था की और कई वैदिक नियम बनाए जिसका मुगलो और फिरंगियों के आने से पहले तक पूरी तरह किया जाता रहा । और हिन्दू जाती ने ज्ञान-विज्ञान और धर्म की अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया ।जिसका वेद-पुराण,योग,आयुर्वेद जैसे ग्रंथो से संबन्धित कई प्रमाण हैं

पुरुषो का स्त्रियों के साथ तथा स्त्रियों का पुरुषो के साथ व्यवहार का वर्णन (ब्रह्मांड पुराण अध्याय 8-9)


                                                                                ॐ श्री महागणेशाय नमः 



पुरुषो का स्त्रियो के साथ व्यवहार 

       पुरुषो को अंतःपुर की रक्षा के लिए व्रद्ध ,जितेंद्रिय  पुरुषो को ही नियुक्त करना चाहिए । स्त्रियॉं की रक्षा न करने से वर्ण संकर उत्पन्न होते है जिनमे कई प्रकार के दोष देखे गए हैं । स्त्रियो को कभी स्वतन्त्रता न दे न उनपर विश्वास करे । किन्तु व्यवहार मे विश्वस्त के समान ही चेष्ठा दिखनी चाहिए । विषेशरूप से उसे पाकादी क्रियाओ मे ही नियुक्त करना चाहिए । स्त्री को किसी भी समय खाली नही बैठना चाहिए ।

     दरिद्रता, अति रूपवान,असतजनों का संग , स्वतन्त्रता, पेयादी द्रव्यों का पान,अभक्ष्य भक्षण करना, कथा गोष्ठी आदी प्रिय लगना,काम न करना ,भिक्षुकी ,कुट्टीनी ,दाई ,नटी ,आदि दुष्ट स्त्रियो के संग उदधान ,यात्रा ,निमंत्रण,आदि मे जाना, तीर्थयात्रा अधिक करना अथवा देवता के दर्शन के लिए घूमना ,पति के साथ बहुत वियोग होना ,कठोर व्यवहार होना,पुरुषो से अत्यधिक वार्तालाप करना ,अति क्रूर अति सोम्य ,अति निडर,ईर्ष्यालु तथा क्रपण  होना  और किसी स्त्री के वशीभूत होना ये सब स्त्री के दोष उसके विनाश के हेतु हैं । एसी स्त्रियॉं के अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो यह उसके विनाश के भी सूचक हैं । यह पुरुषो की हही अयोग्यता है की उसके भ्रत्य बिगड़ जाते हैं । इसलिए समय के अनुसार यहथोचित रीति से ताड़न और शाशन से जिस भाति हो ,इनकी रक्षा करनी चाहिए । नारी पुरुष का आधा शरीर है ।उसके बिना धर्म-क्रियाओ की साधना नही हो सकती । इस इस कारण स्त्री का सदा आदर करना चाहिए ।उसके प्रतिकूल नही करना चाहिए ।

   स्त्री के पतिव्रता होने के तीन कारण देखे जाते हैं । (1) पर-पुरुष मे विरक्ति ,(2)अपने पति मे प्रीति ,(3) अपनी रक्षा मे समर्थता ।

  उत्तम स्त्री को साम तथा दान नीती से अपने अधीन रखे ।
  मध्यम स्त्री को दान तथा भेद से
  अधम स्त्री को भेद और दंड नीति से वशीभूत करे । 
 परंतु दंड देने के अनंतर भी साम-दान आदि से उसको प्रसन्न कर ले । 

भर्ता का अहित करने वाली और व्यभिचारिणी स्त्री कालकूट विष के समान होती है । इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिए । उत्तम कुल मे उत्पन्न ,पतिव्रता,विनीत  और भर्ता का हित चाहने वाली स्त्री का सदा आदर करना चाहिए । इस रीती से जो पुरुष चलता है वह त्रिवर्ग की प्राप्ति करता है । और लोक मे सुख पाता है ।

स्त्रियॉं का पुरुषो के साथ व्यवहार 

 पति की सम्यक आराधना करने से स्त्रियो को पति कृपा प्राप्त होती  है । तथा फिर श्रेष्ठ पुत्र तथा स्वर्ग भी उसे प्राप्त हो जाता है । इसलिए पत्नी को पति की सेवा करना आवश्यक है । सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किए जाने पर ही उत्तम फल देते हैं । और विधि-निषेध का ज्ञान शास्त्रो से जाना जाता है । स्त्रियो का शास्त्र मे अधिकार नही है । और न ग्रंथो के धारण करने मे अधिकार है । इसलिए स्त्रियो के द्वारा शाशन अनर्थकारी माना जाता है ।  स्त्री को दूसरे से विधि-निषेध जानने की अपेक्षा रहती है । पहले तो भर्ता उसे सब धर्मो का निर्देश देता है और भर्ता के मरने के अनंतर पुत्र उसे विधवा व पतीव्रता के धर्म बतलाए ।पुत्र को  बुद्धी के विकल्पो को छोड़कर अपने बड़े पुरुष जिस मार्ग पर चले हों उसी पर चलने मे उसका सब प्रकार से कल्याण है । पतिव्रता स्त्री ही ग्रहस्थ के धर्मो का मूल है । ( ब्रह्मांडपुराण अध्याय 8-9)

चंद्रमा,राहू-केतू का ज्योतिष मे वेज्ञानिक आधार पर प्रभाव


                                                                                     ॐ श्री महागणेशय नमः 


           ज्योतिष मे चंद्रमा का  मन पर सबसे अधिक प्रभाव बताया गया है । आधुनिक विज्ञान कहता है कि चंद्रमा के कारण समुद्र मे ज्वार भाता आता है । समुद्र विशाल है इसलिए चंद्रमा का प्रभाव साफ समझ आता है पर दूसरी जगह समझ नही आ पाता जैसे नदी ,पेड़ और जीव परंतु इस  आधार पर यह तो बात समझ आ जाती है कि चंद्रमा जल तत्व पर अपना प्रभाव दिखाता है । और यह जल कहा नही है । लगभग सभी जगह तो है । और जब चंद्रमा जल पर अपना प्रभाव दिखाता है तो मनुष्य मे अपना प्रभाव दिखाएगा यह तो तय है। क्योंकी मनुष्य के शरीर मे लगभग 75% जल तत्व है । और इसका प्रभाव शरीर के किसी भी अंग मे हो सकता है । और इसका प्रभाव  नमक के प्रतिशत पर भी तय होता है । क्योंकि समुद्र मे नमक की मात्रा भी बहुत अधिक होती है । तो यदि हमारे शरीर मे नमक की मात्रा अधिक है तो यह प्रभाव भी अधिक होगा । जिसके कारण रक्तचाप (ब्लडप्रेशर ) की शिकायत हो सकती है । अक्सर आपने देखा होगा कि नजर उतरते समय भी नमक का प्रयोग किया जाता है । कई व्यक्ति अपने पैसे की जगह पर भी नमक की एक पोटली रखते हैं । इसी तरह सभी 9 गृह अपना प्रभाव जीवो के अलग-अलग तत्व पर दिखा सकते हैं ।पागलो के मानसिक दहसा मे उतार चड़ाव मे चंद्रमा की कलाओ का बहुत प्रभाव रहता है । अक्सर मानसिक रोगी अमावस्या और पूर्णिमा को बहुत बहकते हैं । अमावस पूर्णिमा को कहा जाता है भूतो या बुरी आत्माओ (विक्रत मानसिक तरंगो) का प्रभाव भी होता है । इसका भी यह अर्थ है की  कुछ हमारे आसपास या किसी स्थान विशेष मे एसा होता है जो इस समय मानसिक रूप से या चंद्रमा से बुरे प्रभाव से प्रभावित व्यक्तियों को प्रभावित कर सकता है । जिसे भूत लग जाना कहा जाता होगा । राहू-केतू भी दो गृह चंद्रमा के कारण ही है । चंद्रमा के दोनों ध्रुव प्रथवी के पथ को बार-बार काटते हैं । जिसके कारण राहू और केतू बनते हैं । चंद्रमा के दो ध्रुवो मे से एक ध्रुव सदा प्रथवी की तरफ ही रहता है । हमारी प्रथवी भी एक चुंबक है और चंद्रमा भी एक चुंबक है । जब एक चुंबक पर दूसरे चुंबक का कोई एक ध्रुव पास आता जाता या घूमता है तो दूसरे चुंबक की चुम्बकीय शक्ती पर भी प्रभाव पड़ता है । चंद्रमा लगभग 2.5 दिन मे एक राशी मे रहता है इस तरह लगभग 27.5 दिन मे एक चक्र प्रथवी का पूरा करता है । इस बात से आप समझ जाएंगे नक्षत्रो मे बाटा जाना और भी सूक्ष्म विभाजन है ।राशियों का चक्र सिर्फ प्रथवी के चारो और है ।जो स्थिर है । परंतु प्रथवी के लगातार घूमते रहने के कारण राशियों का प्रथवी की गति के अनुसार उदय और अस्त होता रहता है मेरे अनुसार जन्म के समय एक साँचा बना रहता है जिसमे जन्म लेते ही कोई भी उसमे ढल जाता है और उसी के अनुसार प्रत्येक तत्व का प्रतिशत उसके शरीर मे तय हो जाता है ।  फिर गोचर (वर्तमान मे )  मे ग्रहो की दशा के अनुसार वो प्रभावित होते रहते है । मेरे अनुसार यह भी एक विज्ञान है । जिसको आज का आधुनिक विज्ञान और कुछ व्यक्ति नही मानते हैं । पारा आने वाले समय मे उनको इस बात को स्वीकारना होगा । यदि वो यंहा से शुरू करते हैं तो उनके ही लिए अच्छा है नही तो इस ज्ञान को पाने मे कई सदियाँ बीत जाएंगी । 

स्नान,स्नान के नियम और प्रकार


स्नान की आवश्यकता -
प्रातःकाल स्नान करने के पश्चात मनुष्य शुद्ध होकर जप,पूजा-पाठ आदी समस्त कर्मो के योग्य बनता है,अतएव प्रातः स्नान की प्रशंसा की जाती है । 9 छिद्रवाले अत्यंत मलिन शरीर से दिन-रात मल निकलता रहता है , अतः प्रातः काल  स्नान करने से शरीर की शुद्धी होती है ।

शुद्ध तीर्थ मे प्रातः काल स्नान करना चाहिए ,क्योंकि यह मलपूर्ण शरीर शुद्ध तीर्थ मे स्नान करने से शुद्ध होता है । प्रातः काल स्नान करने वाले के पास दुष्ट नही आते ।इस प्रकार द्रष्टफल-शरीर की स्वच्छता ,अद्रष्टफल-पापनाश तथा पुण्य की प्राप्ति ,यह दोनों प्रकार के फल मिलते हैं , अतः प्रातः स्नान करना चाहिए ।

रूप ,तेज,बल पवित्रता,आयु ,आरोग्य ,निर्लोभता ,दुः स्वप्न का नाश ,तप और मेधा  यह दस गुण प्रातः स्नान करने वाले को प्राप्त होते हैं ।

वेद-स्मृति मे कहे गए समस्त कार्य मूलक हैं ,अतएव लक्ष्मी ,पुष्टी व आरोग्य की व्रद्धी चाहने वाले मनुष्य को सदेव स्नान करना चाहिए ।

स्नान के भेद

(अ) मंत्र स्नान -आपो हि ष्ठा 'इत्यादि मंत्रो से मार्जन करना 

(ब) भोम स्नान - समस्त शरीर मे मिट्टी लगाना

(स) अग्नि स्नान -भस्म लगाना

(द) वायव्य स्नान -गाय के खुर की धुली लगाना

(ई) दिव्य स्नान -सूर्य किरण मे वर्षा के जल से स्नान 

(फ) वरुण स्नान -जल मे डुबकी लगाकर स्नान करना 

(ग) मानसिक स्नान -आत्म चिंतन करना 

यह सात प्रकार के स्नान हैं ।

अशक्तों के लिए स्नान - स्नान मे असमर्थ होने पर सिर के नीचे ही स्नान करना चाहिए अथवा गीले कपड़े से शरीर को पोछना भी एक प्रकार का स्नान है ।

स्नान की विधी - उषा की लाली से पहले ही स्नान करना उत्तम माना गया है । इससे प्रजापत्य का फल प्राप्त होता है ।तेल लगाकर तथा देह को मलमलकर नदी मे नहाना मना है । अतः नदी से दूर तट पर ही देह हाथ मलमलकर नहा ले , तब नदी मे गोता लगाए । शाश्त्रो  मे इसे मलापकर्षण स्नान कहा गया है ।यह अमंत्रक होता है । यह स्नान स्वास्थ और शुचिता दोनों के लिए आवश्यक है । देह मे मल रह जाने से शुचिता मे कमी आ जाती है । और रोम छिद्रों के न खुलने से स्वास्थ मे भी अवरोध होता है । इसलिए मोटे कपड़े से प्रत्येक अंग को रगड़-रगड़ कर स्नान करना चाहिए । निवीत होकर बेसन आदी से  यज्ञोपवीत भी स्वच्छ कर लें । इसके बाद शिखा बांधकर दोनों हाथों मे पवित्री पहनकर आचमन आदी से शुद्ध होकर दाहिने हाथ मे जल लेकर शाश्त्रानुसार संकल्प करे ।

संकल्प के पश्चात मंत्र पड़कर शरीर पर मिट्टी लगाएँ ।

इसके पश्चात गंगाजी की उन उक्तियों को बोलें ,जिनमे कह रखा गया है की स्नान के समय मेरा जंहा कंही कोई स्मरण करेगा ,वंहा के जल मे मै आ जाऊँगी ।

जल की सापेक्ष श्रेष्ठता -  कुए से निकले जल से झरने का जल ,झरने के जल से सरोवर का जल ,सरोवर के जल से नदी का जल , नदी के जल से तीर्थ का जल और तीर्थ के जल से गंगाजी का जल अधिक श्रेष्ठ है । 


जंहा धोबी का पाट रखा हो और कपड़ा धोते समय जंहा तक छींटे पड़ते हो वंहा तक का जलस्थान अपवित्र माना गया है । 

इसके पश्चात नाभी पर्यंत जल मे जाकर ,जल की ऊपरी सतह हटाकर ,कान औए नाक बंद कर प्रवाह की और या सूर्य की और मुख करके स्नान करें । तीन,पाँच ,सात या बारह डुबकियाँ लगाए । डुबकी लगाने स पहले शिखा खोल लें । गंगा के जल मे वस्त्र नही निचोड़ना चाहिए । जल मे मल मूत्र त्यागना और थूकना अनुचित है । शोचकाल वस्त्र पहनकर तीर्थ मे स्नान करना निषिद्ध है ।

  जंहा पहले गंगाजी और जल की शुद्धी के विषय मे जरा जरा सी बातो पर ध्यान दिया जाता था वंही नालो और फेक्ट्रियों का दूषित पानी छोड़ा जा रहा है ।

वेद ,श्लोक ,स्मृति ,उपनिषद और पुराण का अर्थ (अनु भार्गव)


                                                                                    श्री महागणेशाय नमः 


श्रुति >
श्रुतियां ही हिन्दू धर्म के सभी ग्रंथो का आधार है और ग्रंथो की रचना के लिए विद्वानों को प्रेरित करती हैं । जिसको श्रुतियों का ज्ञान हो, जाता है उसको किसी ग्रंथ को पड़ने या समझने की आवश्यकता नाही होती । एक बार साई बाबाजी से एक ब्राह्मण ने पूछा था की श्रुतियाँ क्या है तो उन्होने कहा वह श्रेष्ठ ज्ञान जिसका बिना किसी ग्रंथ को पड़े ही ज्ञान हो जाए । मेरे अनुसार श्रुतिया वो ज्ञान है जिसका समाधी की सर्वश्रेष्ठ अवस्था मे ज्ञान होना  ,या स्वप्न मे अज्ञात ग्रंथो का  खुलना  या ईश्वरीय कृपा से अनायास ही सब ज्ञान हो जाना । श्रुतियों से प्रत्येक कल्प*  का भी ज्ञान हो जाता है ।  



वेद >
वेद प्राचीनतम हिंदू ग्रंथ हैं। ऐसी मान्यता है वेद परमात्मा के मुख से निकले हुये वाक्य हैं। वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'विद्' शब्द से हुई है। विद् का अर्थ है जानना या ज्ञानार्जन, इसलिये वेद को "ज्ञान का ग्रंथ कहा जा सकता है। हिंदू मान्यता के अनुसार ज्ञान शाश्वत है अर्थात् सृष्टि की रचना के पूर्व भी ज्ञान था एवं सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ज्ञान ही शेष रह जायेगा। चूँकि वेद ईश्वर के मुख से निकले और ब्रह्मा जी ने उन्हें सुना इसलिये वेद को श्रुति भी कहा जाता हैं। वेद संख्या में चार हैं - ऋगवेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा यजुर्वेद। ये चारों वेद ही हिंदू धर्म के आधार स्तम्भ हैं।




श्लोक >
संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथन किया जाता है, को श्लोक कहते हैं। प्रायः श्लोक छंद के रूप में होते हैं अर्थात् इनमें गति, यति और लय होती है। छंद के रूप में होने के कारण ये आसानी से याद हो जाते हैं। प्राचीनकाल में ज्ञान को लिपिबद्ध करके रखने की प्रथा न होने के कारण ही इस प्रकार का प्रावधान किया गया था। 

स्मृति >
श्रुति अर्थात् पीड़ियों से सुने हुये ज्ञान और अनुभव को स्मृत करके रखना स्मृति है। कालान्तर में ज्ञान को लिपिबद्ध करने की प्रथा के आरम्भ हो जाने पर जो कुछ सुना गया था उसे याद करके लिपिबद्ध कर दिया गया। ये लिपिबद्ध रचनाएँ स्मृति कहलाईं। मनु-स्मृति भी इसी का एक उदाहरण है जो उनका स्वयं का ज्ञान नही वरन मनु रिशी के अनगिनत पूर्वज महान श्रेष्ठ ऋषियों का ज्ञान और अनुभव ही है । और इसमे दोष निकाले क्या हम इतनी ज्ञानी और अनुभवी हैं । 

उपनिषद >
आत्मज्ञान, योग, ध्यान, दर्शन आदि वेदों में निहित सिद्धांत तथा उन पर किये गये शास्त्रार्थ (सही रूप से समझने या समझाने के लिये प्रश्न एवं तर्क करना) के संग्रह को उपनिषद कहा जाता है। उपनिषद शब्द का संधिविग्रह 'उप + नि + षद' है, उप = निकट, नि = नीचे तथा षद = बैठना होता है अर्थात् शिष्यों का गुरु के निकट किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर ज्ञान प्राप्ति तथा उस ज्ञान को समझने के लिये प्रश्न या तर्क करना। उपनिषद को वेद में निहित ज्ञान की व्याख्या है।

पुराण >


वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ होने के कारण आम आदमियों के द्वारा उन्हें समझना बहुत कठिन था, इसलिये रोचक कथाओं के माध्यम से वेद के ज्ञान की जानकारी देने की प्रथा चली। इन्हीं कथाओं के संकलन को पुराण कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं में ज्ञान, सत्य घटनाओं तथा कल्पना का संमिश्रण होता है। पुराण ज्ञानयुक्त कहानियों का एक विशाल संग्रह होता है। पुराणों को वर्तमान युग में रचित विज्ञान कथाओं के जैसा ही समझा जा सकता है। पुराण संख्या में अठारह हैं -
(1) ब्रह्मपुराण (2) पद्मपुराण (3) विष्णुपुराण (4) शिवपुराण (5) श्रीमद्भावतपुराण (6) नारदपुराण (7) मार्कण्डेयपुराण (8) अग्निपुराण (9) भविष्यपुराण (10) ब्रह्मवैवर्तपुराण (11) लिंगपुराण (12) वाराहपुराण (13) स्कन्धपुराण (14) वामनपुराण (15) कूर्मपुराण (16) मत्सयपुराण (17) गरुड़पुराण (18) ब्रह्माण्डपुराण।


*कल्प -हिन्दू धर्म-ग्रंथो के अनुसार 1000 चतुरयुग बीत जाने पर जब प्रथवी न ही अन्न उपजाने के योग्य रहती हैं न ही किसी का पालन करने के तब धरती एक लंबी प्रक्रिया से गुजरती है जिसके बाद दोबारा जीवो की रचना होती है । कई बार जब आप किसी देव के बारे मे कोई कथा पड़ते या सुनते हैं तो कथा मे अंतर का कारण 'कल्प-भेद' को कहा जाता है । 

औंकार


                                                                          औंकार स्वरूपाय श्री महागणेशाय नमः

शास्त्रो मे लिखा है औंकार ( अ ,उ,म ) अकार भगवान श्री ब्रह्मा , उकार मे भगवान श्री विष्णु और मकार मे भगवान भोलेनाथ का स्वरूप है । और औंकार पूर्ण ब्रह्म है । औंकार को भगवान श्री महागणेशजी का शरीर भी कहा गया है । अर्थात त्रिदेवो का संयुक्त रूप ही भगवान श्री महागणेशजी हैं । भगवान भोलेनाथजी की आरती मे यह कहा भी गया है कि औंकार के मध्य मे त्रिदेव एक हैं । औंकार को शब्द ब्रह्म कहा गया है । ब्रह्म उसको कहा जाता है जिसमे उत्पत्ती ,जीवन और लय यह तीनों क्रिया हों । अब औंकार मे भी यह तीनों क्रिया हैं 'अ' उत्पत्ती ,'उ' जीवन और 'म' लय । यही 
  तीनों क्रिया इस धरती और इस धरती से बाहर सभी जगह है इसलिए ब्रह्म को सगुण साकार कहा जाता है ।और इसका विस्तार और सूक्ष्मता अनंत है इसलिए निर्गुण और निराकार भी कहा जात है ।

औंकार को मंत्रों के पहले लिखा जाता है जिसमे सबसे पहले उस अनंत परमात्मा को स्थान दिया जाता है । जैसे -

ॐ नमः शिवाय

इस मंत्र का पूरा अर्थ है- निर्गुण,निराकार ब्रह्म के सगुण साकार स्वरूप प्रलय और मृत्यु के देवता श्री शंकरजी कों नमन करता हूँ ।

भगवान श्री शंकरजी का अर्धनारीश्वर रूप

                                                                         ॐ शक्ति सहिताय श्री महागणेशाय नमः






किसी भी मनुष्य का दाहिना अंग पुरुष प्रधान और बाया अंग स्त्री प्रधान है ।स्त्रियॉं मे स्त्री के बाए अंग ही शरीर पर सर्वाधिक प्रभाव दिखाते और पुरुषो मे दाए अंग  हैं,  यही दिखाया गया है भगवान शंकरजी के अर्धनारीश्वर रूप मे और यही कारण होता है ,यही कारण होता की ज्ञानी पंडित स्त्रियो के बाए हाथ की कलाई और पुरुषो की दायी कलाई मे किसी भी यज्ञ या अनुष्ठान का अभिमंत्रित धागा बांधते हैं । कई इसको गलत मानते हैं और कहते हैं की-क्यों भाई क्यों बांधे बाए हाथ मे वो तो अशुद्द है ? परंतु वो असली बात को जानते ही नही ,न ही समझने की कोशिश करते हैं ( मुझे उनके द्वारा अपने पूर्वजो के अनुभव ज्ञान पर आधारित स्मृतीयो की उपेक्षा करने का बहुत दुख होता है ) । 

शौचाचार ( शुद्ध होने की विधी )


                                                    अनंतकोटी  ब्रह्मांड नायक श्री महागणेशजी की जय 

 शौचे यत्नः सदा क़ार्यः शौचमूलो द्विजः  स्मृतः । 
शौचाचारेविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः । । ( दक्ष स्मृ . 5/2, बाधुल्स्मृ . 20 )

1. बहयाभ्यंतर शौच 

शौचाचार मे सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए ,क्योंकि ब्राह्मण,क्षत्रिय  और वेश्य का मूल शौचाचार ही है ,इसका पालन न करने से सारी क्रियाए निष्फल हो जाती हैं ।

शौच विधी - यदि खुली जगह मिले तो गाँव से नेऋत्यकोण ( दक्षिण और पश्चिम  के बीच ) की और कुछ दूर जाएँ । रात मे दूर न जाएँ । नगरवासी गृह के शौचालय मे सुविधानुसार मूत्र-पुरीष का उत्सर्ग करें । मिट्टी और जल पात्र साथ लेते जाएँ । इन्हे पवित्र जगह पर रखें । जलपात्र को हाथ मे रखना निषिद्ध है । सिर और शरीर को ढका रखें । जनेऊ को ड़ाए कान पर चड़ा लें । अच्छा तो यह है कि जनेऊ को ड़ाए हाथ से निकालकर ( कंठ मे करके ), पहले दाए कान को लपेटे ,फिर उसे सिर के ऊपर लाकर बाए कान को भी लपेट लें ( एसा करने से सिर ढकने वाला काम पूरा हो जाता है )।शौच के लिए बैठते समय सुबह,शाम और दिन मे उत्तर के ओर मुख करे तथा रात मे दक्षिण की और । यज्ञ मे काम न आने वाले तिनको से जमीन को ढक दें । इसके बाद मों होकर शौच क्रिया करें । उस समय ज़ोर से सांस न ले और थूके भी नही ।

शौच के बाद पहले मिट्टी और जल से लिंग को एक बार धोवे । बाद मे माल स्थान को मिट्टी और जल से तीन बार धोये । प्रत्येक बार मिट्टी की मात्रा हरे आवले के बराबर हो । बाद मे बाए हाथ को मिट्टी से धोकर अलग रखे , इससे कुछ स्पर्श न करे । इसके पहले आवश्यकता पड़ने पर बाए हाथ से नभई के नीचे के अंगो को छुआ जा सकता था , किन्तु अब नाही । नभई के ऊपर के स्थानो को सदा दाये हाथ से छूना चाहिए । दाहिने हाथ से ही लोटा या वस्त्र का स्पर्श करें । लाँग लगाकर ( पहले से अलग बांधकर या कपड़े मे लपेटकर ) रखी गई मिट्टी के तीन भागों मे से हाथ धोने और कुल्ला करने के  लिए नियत जगह पर आए । पश्चिम की और बैठकर मिट्टी के पहले भाग मे से बाए हाथ को 10 बार और दोनों हाथों को पँहुचे ( कलाई ) तक सात बात धोएँ । जल पत्र को तीन बार धोकर ,तीसरे भाग से पहले दाये पैर को फिट बाए पैर को तीन-तीन बार जल से धोये । इसके बाद बाई और 12 कुल्ले करें । बची हुयी मिट्टी को अच्छी तरह बहा दें  । जलपात्र को जल और मिट्टी से अच्छी तरह धोकर विष्णु का स्मरण कर , शिखा को बांधकर ,जनेऊ को उपवीत कर लें , अर्थात बाएँ कंधे पर रखकर दाये हाथ के नीचे कर लें । फिर दो बार आचमन करें ।

मूत्र शौच विधी :- केवल लघुशंका ( पेशाब) करने पर शौच की विधी भिन्न  होती है । लघुशंका के बाद यदि आगे निर्दिष्ट क्रिया न की जाए तो प्रायश्चित करना पड़ता है । अतः इसकी उपेक्षा न करें । 

  विधी-  लघुशंका के बाद एक बार लिंग मे ,तीन बार बाए हाथ मे और 2 बार दोनों हाथ मे मिट्टी लगाकर धोये । एक-एक बार पैरों मे भी मिट्टी लगाकर धोये । फिर हाथ ठीक से धोकर 4 कुल्ले करे । आचमन करे , इसके बाद बची मिट्टी को अच्छे से पानी डालकर बहा दें । स्थान साफ कर दें । शीघ्रता मे अथवा मार्गादी मे जल से लिंग प्रक्षालन कर लेने पर तथा हाथ पैर डूकर कुल्ला कर लेने पर सामान्य शुद्धी हो जाती है । पर इतना अवश्य करना चाहिए ।


परिसतिथी भेद से शौच मे भेद :-   शौच अथवा शुद्धी की प्रक्रिया परिसतिथी के भेद से बदल जाती है । स्त्री और शूद्र के लिए तथा रात मे अन्यों के लिए यह आधी रह जाती है । यात्रा मे चौथाई बरती जाती है  । रोगियों के लिए यह उनकी शक्ती पर निर्भर होती है । शौच का उपर्युक्त विधान स्वस्थ ग्रहस्थों के लिए है । ब्रह्मचारी को इससे दोगुना ,वानप्रस्थ को तींगुना  और सन्यासियों को 4 गुना करना विहित है ।

2. आभ्यंतर शौच

मनोभाव को शुद्ध रखना आभ्यंतर शौच माना जाता है । किसी के प्रति ईर्ष्या ,द्वेष,क्रोध,लोभ,मोह ,घृणा आदी का भाव न होना आभ्यंतर शौच है ।सब मे भगवान का स्मरण करके सब मे भगवान का दर्शन कर ,सब परिसतिथियों को भगवाङका वरदान समझकर ,सब मे मैत्री भाव रखे । तथा साथ ही प्रतिक्षन भगवान का स्मरण करते हुये उनकी आज्ञा समझकर शास्त्र विहित कार्य करता रहे ।