गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

पुराणो की प्रमाणिकता

                                                        ॐ श्री महा गणेशाय नमः


हमारा पुराण साहित्य बड़े महत्व का है ।  पुराण मूलतः तो वेद की ही भांती भगवान का निःश्वाशरूप ही है । शतपथ ब्राह्मण मे आया है-

' गीले काठ मे उत्पन्न अग्नि से जिस प्रकार पृथक घूआ निकलता है , उसी प्रकार ये जो ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्वांगिरस ( अथर्ववेद ) , इतिहास ,पुराण , विद्याएं , उपनिषद , श्लोक , सूत्र , मंत्र विवरण और अर्थवाद है , वे सब महान परमात्मा के ही निःश्वाश हैं । ' ( शतपथ 14-2-4-10 ) अर्थात बिना ही प्रयत्न के परमात्मा से उत्पन्न हुये हैं । -

मनुमहाराज ने तो पुराण की मंगलमयता को जानकार आज्ञा ही दी है -

' श्रद्धादी पित्रकार्यो मे वेद , धर्म शास्त्र , आख्यान , इतिहास , पुराण और उनके परिशिष्ट भाग सुनाने चाहिए । '

ब्रह्मांड पुराण के प्रक्रियापाद मे ' पुराण ' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गई है -

' अंग और उपनिषद के सहित चारो वेदो का अध्ययन करके भी , यदि पुराण को नाही जाना गया तो ब्राह्मण विचक्षण नही हो सकता ; क्यूंकी इतिहास पुराण के द्वारा ही वेद की पुष्टीकरनी चाहिए । यही नही , पुराण ज्ञान से रहित अल्पज्ञ से वेद डरते रहते हैं ; क्यूंकी एसे व्यक्ति के द्वारा ही वेद का अपमान हुआ करता है । अत्यंत प्राचीन तथा वेद को स्पष्ट करने वाला होने से ही इसका नाम ' पुराण ' हुआ है । पुराण की इस व्युत्पत्ती को जो जानता है , वह समस्त पापो से मुक्त हो जाता है । '  ( अध्याय 1 )

इस प्रकार पुराणो की अनादिता , प्राथमिकता तथा मंगलमयता का स्थल-स्थल पर उल्लेख है और सर्वथा सिद्ध व यथार्थ है । भगवान व्यासदेव ने प्राचीनतम पुराण का प्रकाश और प्रचार किया है । वस्तुतः पुराण आनादि और नित्य है ।

पुराणो मे असंभव सी दिखने वाली बातें , परस्पर विरोधी बातें और भगवान तथा देवताओं के साक्षात मिलने आदि के प्रसंग को देखकर स्वल्प श्रद्धा वाले पुरुष उन्हे काल्पनिक मानने लगते हैं ; परंतु यथार्थ मे एसी बात नही है । इनमे प्रत्येक पर संक्षेप से विचार कीजिये ।

जब तक वायुयान का निर्माण नही हुआ था , तब तक पुराणेतिहासिक वर्णित विमानो को बहुत से लोग असंभव मानते थे । पर अब जब हमारी आँखों के सामने आकाश मे विमान उड रहे हैं । , तब वैसी बात नही रही । मान लीजिए आजके रेडियो , टीवी , फोन आदि यंत्र नष्ट हो जाएँ और कुछ शताब्दियों के बाद ग्रंथो मे उनका वर्णन पढ़ने को मिले तो उस समय के लोग वही कहेंगे की ' यह सारी कपोल कल्पना है; भला , हजारो कोसो की बात उसी क्षण वैसी की वैसी सुनाई देना , आवाज का पहचान जाना और उसमे आकृती भी दिख जाना कैसे संभव है । ' हमारे ब्रह्मास्त्र , आग्नेयास्त्र आदि को लोग असंभव मानते थे , पर अब अणुबम की शक्ति को देखकर कुछ-कुछ विश्वाश करने लगे हैं । पुराण वर्णित सभी असंभव बातें एसी ही हैं , जो हमारे सामने न होने के कारण असंभव सी दिखती है ।

परस्पर विरोधी प्रसंग तो कल्पभेद ( दुबारा जीवन की शूरुआत होना ) को लेकर है । पुराणो के सृष्टी तत्व को जानने वाले लोग इस बात को सहज ही समझ सकते हैं ।

रही देवताओं के मिलने की बात , तो यह भी असंभव नही है । प्राचीनकाल के उन भक्तिपूत योगी , तपस्वी , ऋषी -मुनियों मे एसी सात्विकी महान शक्ति थी कि उनमे से कई तो समस्त लोको मे निर्बाध यातायात करते थे । दिव्यलोक ,देवलोक , असुरलोक , और पित्रलोक की व्यवस्था और घटनाओ को वंहा जाकर प्रत्यक्ष देखते थे । देवताओं से मिलते थे । और अपने तपोमय प्रेमाकर्षण से देवताओं को- यंहा तक की भगवान को भी अपने यंहा बुलाकर प्रकट कर लिया करते थे । पुराणो की एसी बातें उन ऋषि-मुनियों की स्वयं प्रत्यक्ष की हुयी होती हैं । अद्वेत-वेदान्त के महान आचार्य भगवान शंकर ने शारीरकभाष्य मे लिखा है -

" इतिहास और पुराण भी मन्त्र्मुलक तथा अर्थवाद-मूलक होने के कारण प्रमाण हैं , अतः उपयुक्त रीति से वे देवताविग्रह आदि के सिद्ध करने मे समर्थ होते हैं । देवताओं का प्रत्यक्ष आदि भी संभव है । इस समय हमे जो प्रत्यक्ष नाही होते , प्राचीन लोगों को वे प्रत्यक्ष होते थे । जैसे की व्यासादी के देवताओं के साथ प्रत्यक्ष व्यवहार की बात स्मृती मे है । ' आजकल की भाँति पुरुष भी देवताओं के साथ प्रत्यक्ष व्यवहार करने मे असमर्थ थे ' आयह कहने वाला तो जगत की विचित्रता का ही निषेध करेगा । ' आजकल के समान अन्य समय मे भी सार्वभौम क्षत्रियों की सत्तानही थी ' यों कहने पर तो राजसूय आदि विधी का ही निषेध हो जाएगा और एसी परतिज्ञाकर्णी पड़ेगी की आजकल के समान अन्य समय मे भी वर्णाश्रम अव्यवस्थित ही था । तब तो इसकी व्यवस्था करने वाला शास्त्र ही व्यर्थ हो जाएगा । अतएव यह सिद्ध है की धर्म के उत्कर्ष के कारण प्राचीन लोग देवताओं आदि के साथ प्रत्यक्ष व्यवहार करते थे । "

   इससे सिद्ध होता है की पुराण वर्णित प्रसंग काल्पनिक नही हैं , वे सर्वथा सत्य हैं । अवश्य ही यह बात है की हमारे ऋषीप्रणीत ग्रंथो मे वर्णित प्रसंग एसे चमत्कारपूर्ण हैं , कि जिनके आध्यात्मिक , आधिदेविक , आधिभौतिक -तीनों ही अर्थ होते हैं । इसलिए जो लोग इनका आध्यात्मिक अर्थ करते हैं , वे भी अपनी दृष्टी से सही ही करते हैं । पुराणो मे कंही - कंही एसी बातें भी हैं , जो घृणित मालूम देती हैं । इसका कारण यह है कि उनमे कुछ प्रसंग तो एसे हैं , जिनमे किसी निगूढ़ तत्व का विवेचन करने के लिए अलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है । उन्हे समझने के लिए भगवतकृपा , सात्विकी श्रद्धा और गुरु-परंपरा  के अध्ययन की आवश्यकता है । कुछ एसी बातें है , जो सच्चा इतिहास हैं । बुरी बात होने पर भी सत्य के प्रकाश करने की दृष्टी से उन्हे ज्यों का त्यों लिख दिया गया है । इसका कारण यह है कि हमारे वे पुराण वक्ता ऋषी-मुनि आजकल के इतिहास लेखकों की भाँति राजनेतिक , दलगत , देशगत और जातिगत आग्रह के मोह से मिथ्या को सत्य बनाकर लिखना पाप समझते थे । वे सत्यवादी , सत्याग्राही और सत्य के प्रकाशक थे ।

अब एक बात और है कि , जो बुद्धीवादी लोगों की दृष्टी मे प्रायः खटकती है -वह यह कि पुराणो मे जंहा जिस देवता , तीर्थ या व्रत आदि का महत्व बताया गया है , वंहा उसी को सर्वोपरि माना है । और अन्य सब के द्वारा उसकी स्तुती कराई गई है । गहराई से देखेने पर यह बात अवश्य बेतुकी सी प्रतीत होती है ; परंतु इसका तात्पर्य यह है कि भगवान का यह लीलाभिनय एसा आश्चर्यमय है कि इसमे एक ही परिपूर्ण भगवान भिन्न-भिन्न लीलाव्यापार के लिए और विभिन्न रुचि , स्वभाव तथा अधिकारसंपन्न साधको के कल्याण के लिए अनंत विचित्र रूपों मे नित्य प्रगट हैं ।

( हनुमान प्रसाद पोद्दार व चिमनलाल गोस्वामी -संस्थापक व संपादक गीताप्रेस गोरखपुर )

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