मंदिर इस धरती पर क्या है और इनकी आवश्यकता क्या है ? हमारे पूर्वज बहुत ही
महान और सारी मानव जाती के उत्थान के लिए प्रत्येक कार्य करने वाले रहे
हैं । इसी क्रम मे मंदिरों का निर्माण किया गया और देतावओं को प्रतिष्ठित
किया गया है , जिससे साधारण मनुष्य भी दिव्य चेतनाओं के शुभ प्रभाव से
लाभान्वित हो सके और इस संसार मे सहायता और लाभ प्राप्त करके सामाजिक ,
आर्थिक व आत्मिक आदि सभी प्रकार का उत्थान कर सके । अब बात आती है की मंदिर
आखिर इस धरती पर हैं क्या ?, तो मंदिर इस धरती दिव्य-चेतनाओ के छोटे-छोटे
शक्ति-पीठ या शाखाएँ हैं ।इन छोटे-छोटे शक्तिपीठों की आवशयकता यह है की साधारण मनुष्य मानसिक व
शारीरिक रूप दोनों से इतना शुद्ध नही होता है कि वह ब्रह्मांडीय दिव्य
चेतनाओ से सीधे संबंध स्थापित कर सके या उनसे किसी तरह का लाभ लेकर उत्थान
कर सके । ब्रह्मांडीय दिव्य चेतनाए भी साधारण मनुष्यों से सीधे संबंध
स्थापित नही कर सकती क्यूंकी उनकी तन-मन की अशुद्धता इसमे बाधा बनती है ।
तन-और मन से गंदे रहने वाले यदि दिव्य प्रभावों के संपर्क मे आते हैं तो
दिव्यता प्रभावहीन हो जाती हैं । जैसे किसी बहुत बड़े उद्योग का अनेक शहरों
मे स्थापित छोटी-छोटी शाखाओं से संबंध होता है उसी तरह देवता विशेष के
मंदिरों का संबंध देवता विशेष से होता है । अब बात आती है मंदिरों के
पुजारियों की । किसी भी देवता विशेष के मंदिरों मे दिव्य चेतनाओं से सही
समंजस्य बनाए रखने के लिए साधारण मनुष्य योग्य नही हो सकते , क्यूंकी वे
शारीरिक व मानसिक रूप से शुद्ध नही हो सकते ? मंदिरों मे एसे मनुष्यों की
आवश्यकता होती है , जो शारीरिक व मानसिक रूप से शुद्ध रहे और सदा रहने का
प्रयास करें । यदि एसे मनुष्य जो पूर्वजों के द्वारा लगातार तन-मन से शुद्ध
रहने के कारण अब आनुवांशिक रुप से अब इतने विकसित हो चुके हैं कि जो जन्म
से ही तन-मन की शुद्धता प्राप्त कर लेते हैं और दूषित होने पर भी थोड़े ही
प्रयासों से शुद्ध हो जाते हैं मिल जायें तो मंदिरों व दिव्य कार्यों के
लिए उनसे श्रेष्ठ कौन हो सकता है ।
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