सोमवार, 27 सितंबर 2010

समय की गढ़ना , श्रष्टी की उत्पत्ती का अति संक्षिप्त वर्णन


                                                                        ॐ शक्ति सहिताय श्री आदिगनेशाय नमः 

18 निमेष (पलक गिरने के समय को निमेष कहते हैं ) की एक काष्ठा होती है । अर्थात जितने समय मे 18 बार पलकों का गिरना हो, 30 काष्ठा की एक कला,30 कला का एक छण,12 छण का एक मुहूर्त ,30 मुहूर्त का एक दिन-रात ,30 दिन-रात का एक महीना ,2 महीनो की एक ऋतु,3 ऋतु का एक अयन तथा 2 अयनों का एक वर्ष होता है । इस प्रकारसूर्य भगवान के द्वारा दिन-रात्री का काल विभाग होता है ।सम्पूर्ण जीव रात्री को विश्राम करते हैं और दिन मे अपने-अपने कर्म मे प्रवत्त होते हैं ।

 पितरों का एक दिन-रात मनुष्यो के एक महीने के बराबर होता है अर्थात शुक्ल पक्ष मे पितरों की रात्री और कृष्ण पक्ष मे दिन होता है ।
देवताओं का एक अहोरात्र (रात-दिन) मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है अर्थात उत्तरायन दिन और दक्षिणायन रात होता है।

 सत्ययुग 4000 वर्ष का है उसके संध्यान्श के 400 तथा संध्या के 400 वर्ष मिलकर 4800 दिव्यवर्षों* का एक सत्ययुग होता है ।
त्रेतायुग 3000 वर्षों का तथा 300 संध्यान्श तथा 300 संध्या के मिलकर 3600 दिव्यवर्षों का एक त्रेता युग होता है ।
 द्वापर 2000 वर्षों का ,संध्या तथा संध्यान्श के 400 वर्ष मिलकर 2400 वर्षों का एक द्वापरयुग होता है । 
कलियुग 1000 वर्षों का, संध्या और संध्यान्श के 200 वर्ष मिलकर 1200 वर्षों का एक कलियुग होता है ।

 यह सब मिलकर 12000 दिव्य वर्ष होते हैं । यही देवताओं का एक युग कहलाता है । देवताओं के लगभग 994-1000 युग होने से ब्रह्माजी का एक दिन होता है । और यही प्रमाण उनकी रात्री का भी है ।  अर्थात 12000 वर्ष दिन के और 12000 दिव्य वर्ष रात्री के कुल 24000 दिव्य वर्षो का ब्रह्माजी का एक दिव्य दिन होता है ।  जब ब्रहमाजी अपनी रात्री के अंत मे सोकर उठते हैं तब सत-असत रूप मन को उत्पन्न करते हैं । वह मन श्रष्टी करने की इच्छा से विकार को प्राप्त होता है तब उससे प्रथम आकाश तत्व उत्पन्न होता है । आकाश का गुण शब्द कहा गया है । विकारयुक्त आकाश से सब प्रकार के गंध को वहाँ करने वाले पवित्र वायु की उत्पत्ती होती है । जिसका गुण स्पर्श है । इसी प्रकार विकारवान वायु से अंधकार का नाश करने वाला प्रकाशयुक्त तेज उत्पन्न होता है, जिसका गुण रूप है । विकारवान तेज से जल ,जिसका गुण रस है और जल से गंध-गुण वाली प्रथवी उतपन होती है । इसी प्रकार श्रष्टी का क्रम चलता रहता है । 

पूर्व मे 12000 दिव्य वर्षों ( 12000 ब्रह्माजी के रात्री के वर्षों को नही जोड़ा जाता है , क्योंकि ब्रह्माजी की रात्री मे सिर्फ प्रलय और विनाश होता है ) का जो देवताओं का एक दिव्य युग बताया गया है , वैसे ही 71 युग होने से एक मन्वंतर होता है । ब्रहमाजी के एक युग मे 14 मन्वंतर होते हैं । 71*14 = 994 दिव्य वर्षों का एक महाकल्प होता है इस प्रकार महाकल्प करीब 994(2385600)-1000(24000000) देवताओं के दिव्य वर्षों के बराबर होता है । इसमे कल्प के प्रारंभ मे जब धरती पर जीवन नही होता तब से लेकर इस ज्ञान को पा लेने तक के समय की गढ़ना नही की गई है जिसमे करोड़ो अरबों वर्ष लग जाते हैं । 

 सत्ययुग मे धर्म के चरो पाद वर्तमान रहते हैं । अर्थात सत्ययुग मे धर्म चरो चरणों (सर्वांगपूर्ण) से रहता है । फिर त्रेता आदी युगों मे धर्म का बल घटने से क्रम से एक-एक चरण घटता जाता है- अर्थात त्रेता मे 3 चरण,द्वापर मे 2 चरण और कलियुग मे धर्म का एक ही चरण बचा रहता है । और तीन चरण अधर्म के होते हैं । सत्ययुग के मनुष्य धर्मात्मा ,निरोग ,स्त्यावड़ी होते हुये 400 वर्षों तक जीवन धारण करते हैं । फिर त्रेता आदि युगों मे क्रमशः 100 वर्ष कम होते जाते हैं । इन चारों युगों के धर्म भी भिन्न-भिन्न होते हैं । सत्ययुग मे तपस्या,त्रेता मे ज्ञान,द्वापर मे यज्ञ कलियुग मे दान प्रधान धर्म बताया गया है ।

* एक संक्रांति से दूसरी सूर्य संक्रांति के समय को सौर मास कहते हैं ।12 सौर मासो का एक सौर वर्ष होता है । और मनुष्य मान का यही एक  सौर वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र होता है । एसे ही 30 अहोरात्रों का एक  मास और 12 मासो का एक दिव्य वर्ष होता है ।