गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

ऋग्वेद के दसवें मंडल के दसवें सूक्त में सहोदर भाई-बहन यम और यमी का संवाद

                                                     ॐ श्री महा गणेशाय नमः

ऋग्वेद के दसवें मंडल के दसवें सूक्त में सहोदर भाई-बहन यम और यमी का संवाद है जिसमें यमी यम से संयोग ( हिंदु विरोधी इसे संभोग का नाम देते हैं ) याचना करती हैं ।
सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि यम-यमी को हैं कोन ? इस सूक्त के देवता और ऋषी दोनों ही 'यम-यमी ' हैं । सायणाद आचार्यों के मत से ऋषी व देवता व्यक्तिवाचक भी हैं ; साथ ही उन्हे प्राण की विशिष्ट धाराओं के रूप मे भी स्वीकार किया जाता है ।

व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप मे - पौराणिक संदर्भ मे यम और यमी विवस्वान के जुड़वा पुत्र व पुत्री हैं । अपने प्रवास के क्रम मे समुद्र के बीच निर्जन प्रदेश मे यमी , यम के संयोग ( क्यूंकी यह दिव्य चेतना शक्ति हैं कोई शरीर रूप धारी स्त्री पुरुष नही ) से संतान प्राप्ति की कामना व्यक्त करती हैं । यम उसके प्रस्ताव से सहमत नही होते । यमी के प्रस्तुत तर्कों और व्ययंगों को निरस्त करके वे उसे मर्यादा-पालन के लिए प्रेरित करते हैं । पौराणिक कथानक की लौकिक प्रेरणा यह है कि यदि किसी परिसतिथी विशेष मे नर-नारी मे से एक पक्ष के मन मे दुर्बलता आये भी , तो दूसरा पक्ष अविचल रहकर मर्यादा के संरक्षण मे समर्थ सिद्ध हो , यही गरिमामय है ।

सूक्त के ऋषी व देवता यम-यमी एक विशिष्ट प्राणधारा ( न कि शरीर रूप धारी मानव ) हैं । जो श्रष्टी संरचना के लिए प्रेरित हुये हैं । विवस्वान का अर्थ है - तेजस-समपन्न अथवा विशिष्ट प्रकार से आवृत्त करने वाला । परम व्योम के सीमित अंश मे पदार्थ व जीव की संरचना हुई है । परम व्योम तथा सृष्टी युक्त आकाश के बीच एक चेतना का आवरण आवशयक है । यह आवरण तेजस-संपन्न विवस्वान है । विवस्वान ने अपने को दो विशिष्ट धारों मे विभक्त किया - ' यम-यमी' । यम व यमी दोनों अपने नाम के अनुरुओ नियमन करने मे समर्थ हैं । यम मे बीज की क्षमता है तथा यमी मे भूमि की सामर्थ्य है ।

यह दोनों प्रवाह सृष्टी की रचना के उद्देश्य से विभक्त किए गए । विशाल, एकांत व्योम-सागर मे गतिमान उनमे से ईक धारा संयुक्त होने के लिए स्वभावतः सक्रिय होना चाहती है ; किन्तु यह उचित नही है । यदि वे दोनों घटक मिल जाते , तो पुनः वही ' विवस्वान ' तत्त्व बन जाता सृष्टी का विशिष्ट उद्देश्य नही सधता । इसलिए नियामक देवधारा-यम उससे सहमत नही होते । वे यमी से कहते हैं कि हम दोनों ( प्राण-प्रवाहों ) कों परस्पर न मिलकर भिन्न प्रकार किए गए शक्तिशाली ऊर्जा कणो से संयुक्त होकर जीव-संरचना का आधार बनना चाहिए । स्मरणीय तथ्य है - विज्ञान भी यह मानने लगा है कि प्रथम महाविस्फोट( बिगबेंग ) मे चेतना कण तथा दूसरे शक्ति कण बने । शक्ति कणो के परारस्पर संयोग से पदार्थकण और चेतना कणो से प्राणी-जगत की उत्पत्ती हुयी । यह सूक्त इसी गूढ़ प्रक्रिया का घटनापरक चित्रण करता है । मंत्रार्थ करने मे एसा प्रयास किया गया है कि उसे उक्त दोनों ( पौराणिक व पृकृतीगत ) अर्थों पर घटित किया जा सके । अभी मंत्रो का अनुवाद नही  है । सिर्फ साधारण अर्थ ही  है

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