मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

आओ उपर उठे और ब्राह्मण बने

                                      ब्राह्मण स्वरूप भगवान श्री गणेशजी को नमन

   आओ ब्राह्मण बने । हम ब्राह्मण सभी वर्णो व मलेच्छ्यो ( मुसल्मान और ईसाई ) , मूलनिवासी आदि जातियो का आवाहन करते है कि वे उपर उठे और ब्राह्मण बने । परन्तु इससे पहले यह जानले कि आप ब्राह्मण कैसे बन सकते है । एसा नही है, कि आपने माना कि आप ब्राह्मण है ? और ब्राह्मण बन गये । ब्राह्मन सिर्फ़ कर्म से नही बना जा सकता आपको वन्श से भी ब्राह्मण बनना होगा । ब्राह्मणत्व का बीज आप अपने वन्श मे बोयेगे और आपका वन्श ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता जायेगा । ब्राह्मण बनने के लिये आपके वन्श को एक-एक कर चारो वर्णो को अपने कर्मो और वन्श की शुद्धता द्वारा लगातार विकसित होते हुये  पाना होगा । ब्राह्मण बनने के लिये क्या जरूरी है ? और किस तरह कोई भी वर्ण मलेच्छ्य ( मुसलमान और ईसाई ) से शुद्र , शुद्र से वेश्य , वेश्य से क्षत्रिय और क्षत्रिय से ब्राह्मण बन सकता है ,यह आपको समझना जरूरी है ?

ब्राह्मण उसे माना जायेगा
(१).   जिसकी माँ की ओर से, पिता की ओर से सात पीढि़याँ शुद्ध हों ।
(२).   जिसके कुल में सात पीढि़यों में वर्ण संकर न हुआ हो ।

(शुद्ध और वर्ण संकर के विषय मे नीचे देखे )

शुद्ध हो  :-ब्राह्मणो मे ब्राह्मण उसे माना जाता है जो शुद्ध हो अर्थात जिस पुत्र ने अपनी माता के गोत्र व पिता के गोत्र वाली कन्या से विवाह न किया हो साथ वह कन्या माता की पिछली सात पीडियो से रक्त सम्बन्ध न रखती हो या खून का रिश्ता न हो वह ब्राह्मण शुद्ध है ।

वर्ण संकर न हो :-वर्ण संकर के दो भेद ( जिस ब्राह्मण के पिता ने ब्राह्मण कन्या से ही विवाह किया हो यदि अन्य वर्ण या जाती मे विवाह किया है तो वह वर्ण संकर कहलायेगा । साथ ही क्षत्रिय वर्ण से नीचे के वर्ण या अन्य मलेच्छय ( मुसलमान या ईसाई ) या आदिवासी जाती मे विवाह किया है तो सन्तान माता की जाती का होगा  )
(अ)वर्ण अनुलोम क्रम :- पुरुष द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण अनुलोम संतान कहलाती है  ।
(ब) वर्ण विलोम क्रम :- कन्या द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण विलोम संतान कहलाती  है ।

इसी नियम के आधार पर कोई भी मलेच्छय ( मुसलमान व ईसाई ) , मूलनिवासी या कोई भी अन्य जाती उपर उठते हुये किसी भी वर्ण को प्राप्त कर सकती है ।

जो भी वर्ण या जाती उपर उठना चाहती है उस जाती के पुत्र को स्वयं को आधार ( गोत्र प्रवर्तक पुरुष ) मानते हुये कोई भी शुभ सूचक परन्तु सभी से भिन्न नाम रखकर वन्श गोत्र निर्धारित करना होगा ।
एक बार गोत्र निर्धारित हो जाने पर भविष्य मे होने वाली सभी संतानो का यही गोत्र होगा जो पह्चान होगी उनके वंश के आधार पुरुष की । भविष्य मे जब भी विवाह होगा उसके वंशज अपनी जाती मे ही विवाह करेंगे और गोत्रादि नियमो का पालन करेंगे ।

अब यदि कोई मलेच्छ्य ( मुसलमान और ईसाई ) , मूलनिवासी या कोई अन्य जाती ब्राह्मण बनना चाहता है तो पहले उसे शुद्र वर्ण को सफ़लता पुर्वक प्राप्त करना होगा । शुद्र बनने के लिये उपर दिया गया नियम ही लागू होगा । उदाहरण के लिये समझाकर लिखता हुं कोई शुद्र कैसे अपने वर्ण से उपर उठते हुये वेश्य वर्ण मे प्रतिष्ठित हो ।

 शुद्र उसे माना जायेगा
(१).   जिसकी माँ की ओर से, पिता की ओर से सात पीढि़याँ शुद्ध हों ।
(२).   जिसके कुल में सात पीढि़यों में वर्ण संकर न हुआ हो ।

(शुद्ध और वर्ण संकर के विषय मे नीचे देखे )

शुद्ध हो  :-शुद्र मे शुद्र उसे माना जाता है जो शुद्ध हो अर्थात जिस पुत्र ने अपनी माता के गोत्र व पिता के गोत्र वाली कन्या से विवाह न किया हो साथ वह कन्या माता की पिछली सात पीडियो से रक्त सम्बन्ध न रखती हो या खून का रिश्ता न हो वह शुद्र शुद्ध है ।
वर्ण संकर न हो :- जिस शुद्र के पिता ने शुद्र की कन्या से ही विवाह किया हो यदि अन्य वर्ण या जाती मे विवाह किया है तो वह वर्ण संकर कहलायेगा । साथ ही यदि मलेच्छ्य ( मुसलमान व ईसाई ) , मूलनिवासी व अन्य जाती मे विवाह किया है तो सन्तान माता की जाती की होगी और यदि अपने से उच्च वर्ण मे विवाह किया है तो यह सन्तान वर्ण विलोम होगी और एसी सन्तान को अपनी ही जैसी ही वर्ण-विलोम सन्तान से विवाह करना चाहिये । ( वर्ण संकर जातियो के दो भेद हैं )

(अ)वर्ण अनुलोम क्रम :- पुरुष द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण अनुलोम संतान कहलाती है  ।

(ब) वर्ण विलोम क्रम :- कन्या द्वारा पाने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण विलोम संतान कहलाती  है ।

यही नियम सभी जातियो और वर्णो पर लागू होता है साथ ही शास्त्रो मे बताये गये तन मन की शुद्धता संबन्धी अन्य नियमो का भी पालन करना अनिवार्य होगा अन्यथा क्षम्य दोष के लिये कठोर प्रयश्चित ( कठिन उपवास ) करना होगा व अक्षम्य दोष के लिये पुर्व के वर्ण या जाती को ही स्वीकारना होगा । निश्चय ही यह कठोर नियम हैं परन्तु एसा नही है कि एसा कभी हुआ ही नही है ? कलियुग के प्रारम्भ मे ही इस भारत मे सभी ब्राह्मण हो गये थे । विकास करते हुये शुद्रता से उपर उठते हुये ब्राह्मणत्व को पाना बहुत ही कठिन और लम्बा अनुवान्शिक विकास है परन्तु ब्राह्मणत्व से नीचे गिरकर शुद्रता या उससे भी नीचे मलेच्छ्यता ( मुसल्मान व ईसाई ) को पाना बहुत ही सरल है । आज ब्राह्मण भी धीरे-धीरे शूद्रता को पा रहे है बहुत मिलावट हो गई है ब्राह्मणो मे ,जल्द ही इस दोष को समाप्त करना होगा और नये ब्राह्मणो का विकास करना होगा ।


                                            बोलो ब्राह्मण स्वरूप भगवान श्री गणेशजी की जय

लिंग पुजा नही अश्लील

                                   ॐ श्री महागणेशाय नमः


                              हिन्दुओ मे सभी देवताओ की लिंग पुजा की जाती है जिसे कई हिंदु विरोधी अश्लील होना बताते है  और इस कारण हमारे कई धर्मपालक ( हिन्दु भाई ) भ्रमित हो जाते हैं और उन्हे भी यह बात समझ नही आती है । परन्तु इसमे भ्रमित होने वाली कोई भी बात नही है न ही शर्मिंदा होने की कोई बात है क्युं कि हिन्दुओ मे जो कोई भी शब्द है वह किसी व्यक्ति या वस्तु विषेश के लिये नही है यह सभी शब्द या नाम उपनाम आदि सभी गुणो के अनुसार निर्धारित किये गये है और यह सभी नाम गुणो की प्रधानता को दर्शाते हैं इसी तरह लिंग और योनि भी हैं इसे नीचे  समझे

लिंग- लिंग उस अन्ग को कहा जाता है जो देवता या जीव आदि के विषिष्ठ गुण ( बीज रूप ) को श्रेष्ठ सृजन के उद्देश्य की पूर्ती के लिये  प्रवाहित या विस्तारित कर सके या बीज * को प्रतिष्ठित कर सके अतः जो अन्ग शुभ उद्देशय (श्रेष्ठ नव स्रुजन ) की पूर्ती के लिये संबन्धित कार्य करता हो लिंग कहा जा सकता है यंह जिस अन्ग को लिंग कहा जाता है यदि उसी अन्ग को यदि इन उद्देश्यो की पूर्ती न करते हुये सिर्फ़ शारिरिक सुख या विकृत सृजन का प्रयास चाहे-अनचाहे यद किया जाता है तो वे अन्ग लिंग नही कहे जा सकते

योनी-योनी वह अन्ग है जो श्रेष्ठ नव सृजन के उद्देशय की पूर्ती के लिये प्रवाहित किये गये बीज को ग्रहण करते हुये प्रतिष्ठित करने मे सहायक योग्दान देती है इसी तरह यदि इस अन्ग से इन उद्देश्यो की पूर्ती न करते हुये सिर्फ़ शारिरिक सुख के लिये या जाने-अनजाने या चाहे-अनचाहे विकृत स्रुजन किया जाता है तब इस अन्ग को भी योनी नही कहा जा सकता

शिवलिंग को ही अश्लील क्युं बताना-सभी देवताओ की लिंग पुजा के लिये शास्त्र धर्मपालको (हिंदुओ) को निर्देशित करते हैं परन्तु सिर्फ़ एकमात्र शिवलिंग को ही अश्लील बताते हुये अश्लील भाषा मे मलेच्छ्यो द्वारा प्रचारित कर धर्मपालक ( हिंदुओ ) को भ्रमित करने का प्रयास किया जाता है । इसका पहला कारण तो यह है धर्मपालको द्वारा सबसे अधिक शिवलिंग का ही पुजन किया जाता है दुसरा शिवलिंग स्तम्भ रूप मे होता है एसा अधिकांशतः हिन्दु विरोधियो द्वारा प्रचारित किया जाता है जिसमे बौद्ध,आर्य समाजी ,मुसलमान ईसाई आदि शामिल हैं । वास्तव मे शिवलिंग का स्तम्भ रूप सभी मे गुणो के क्रमिक विकास का स्तम्भ रूप है ।

अब सवाल उठता है कि हिन्दु ( धर्मपालक ) विरोधीयो के द्वारा इन गुणो को धारण करने वाले अंगो की पूजा को अश्लील क्युं कहा जाता है तो इसका कारण यह है कि धर्मपालको ( हिन्दुओ )के अतिरिक्त इस धरती पर एसी कोई मनुष्य जाती नही है जो श्रेष्ठ सृजन के उद्देशय के लिये प्रयास करते हो यह हिन्दु विरोधी सभी मनुष्य इन अन्गो द्वारा काम-वासना या शरीर सुख के एक मात्र उद्देशय की पूर्ती के लिये ही प्रयास रत रहते है और उन्हे तो कभी इस बात का ज्ञान होता ही नही कि एसा भी कोई नियम , उपाय या प्रयास है जिसके द्वारा श्रेष्ठ संतान को जन्म दिया जा सकता है वास्तव मे कहा जाय तो एसे मलेच्छ्यो ( सिर्फ़ शारिरिक सुख की इच्छा के लिये प्रयास करने वाले ) के लिंग व योनी जैसे कोई अन्ग होते ही नही हैं एक तरह से कहा जाय तो यह लिंग व योनी जैसे श्रेष्ठ अन्गो की बजाय उन अन्गो को धारण करते है जिन्हे गालियो के रूप मे प्रयोग किया जाता है गालिया और कुछ नही यह व्यक्ति विषेश के अवगुणो को दर्शाने वाले शब्द होते हैं

तो इन सभी बातो से यही सब प्रमाणित होता है कि निःसंकोच होकर लिंग पुजा की जा सकती है क्युंकि हम उन अन्गो की पुजा करते हैं जो श्रेष्ठ नव स्रुजन मे सहायक है और जो भी लिंगपूजा को अश्लील बताते हैं उन्हे मुर्ख या नादान समझ कर माफ़ कर देना चाहिये या एसा समझना चाहिये कि वे धर्मपालको ( हिंदुओ ) की श्रेष्ठता व श्रेष्ठता के प्रयासो के कारण द्वेष नाम की बीमारी से पीड़ित होने के कारण एसा करते हैं

ज्योति्ष मे वर्ण-जाती ,योनी , खान-पान, रहन-सहन व व्याव्हार आदि के आधार पर ग्रहो के प्रभाव की भिन्न्ता

                          महान गणितज्ञ भगवान श्री गणेशजी को शत-शत नमन

कुंडली विज्ञान ग्रह-नक्षत्रो के गुरुत्वाकर्षण बल के आधार पर विकसित किया गया विज्ञान है । जिसमे ग्रहो की दिशा व नक्षत्रो-राशियो मे होने के कारण हुए , हो रहे व होने वाले प्रभावो को दर्षाता है । परन्तु लगभग सभी ज्योतिषी कुंडली का अध्ययन करते समय इस बात का ध्यान नही रखा करते कि वे किस तरह के आनुवान्शिक गुणो वाले व्यक्ति की कुंडली का अध्ययन कर रहे है । ग्रहो-नक्षत्रो का प्रभाव वर्ण व जाती व वंश आदि के अनुसार अययन किया जाना चाहिये । क्युन्कि यह सभी प्रभाव चुम्बकीय प्रभाव होते है । और यह चुम्बकीय प्रभाव चुम्बक की  गुण्वत्ता ( क्वालिटी  ) और आसपास की परिस्तिथियो पर भी निर्भर करता है । आज अनगिनत ज्योतिषी कुकुर्मुत्तो के समान उग आये है जो न किसी बारीकी पर ध्यान देते है न ही अन्य किसी बात पर ? आप ज्योतिष मे हिन्दु , मुसलमान , सिख और ईसाई व अन्य जातियो को एक ही तराजू मे तोलकर उनकी कुंडलियो का अध्ययन समान रूप से नही कर सकते ? क्युन्कि सबका , खान-पान, रहन सहन , व्यावहार आदि सभी कर्म भिन्न-भिन्न होते है और इन्ही भिन्न-भिन्न कर्मो के कारण भिन्न-भिन्न जातियो का विकास होता ।

ग्रहो का प्रभाव ( ग्रहो के प्रभाव के लिये इस लिन्क को देखें  www. facebook.com/notes/विनेक-दुबे/चंद्रमाराहू-केतू-का-ज्योतिष-मे-वेज्ञानिक-आधार-पर-प्रभाव/125530690833482 )तो मनुष्य क्य सभी जीवो यंहा तक की वनस्पतियो आदि सभी जड़-चेतन पर पढता है । तो इसका यह अर्थ तो नही हो जाता कि सभी का भविष्य भी एक समान होगा । यदि कोई इस अतरह ज्योतिष शास्त्र का प्रयोग करता है तो वह सभी को मुर्ख ही बनायेगा और ज्योतिष शास्त्र को कलंकित करेगा

सिखो के पुर्वज भी ब्राह्मण थे , गुरु नानक देव जन्म से ब्राह्मण थे ( hi.wikipedia.org/wiki/गुरू_नानक_देव )

                                                   भगवान श्री गणेशजी को प्रणाम

हम ब्राह्मणो की एक पीडी से दुसरी पीडी सुनती आ रही है कि मुगल आक्रमणकारियो का सामना करने के लिये ब्राह्मणो ने ही अपने सबसे बडे पुत्र का लगातार बलिदान देते हुये सिख संप्रदाय की स्थापना की है , परन्तु आज सिख यह भूल चुके है , वे यह मानने के लिये तैय्यार ही नही है कि सिख ब्राह्मणो की वन्शज है ? और सिख स्म्प्रदाय की स्थापना हिन्दुओ की रक्षा के लिये की गई थी । परन्तु हम ब्राह्मण तो यह जानते ही है और इसके प्रमाण भी है ।

         सिख संप्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव जी के जन्म और माता पिता से स्म्बन्धित जानकारी को यदि आप देखे तो आप भी समझ जायेगे कि पुर्व मे सिख शुद्ध ब्राह्मण ही थे  गुरु नानक के जन्म से संबन्धित इस जान्कारी को देखिये

(१). हिन्दु विक्रम संवत के प्रयोग से सिख स्म्प्रदाय का हिन्दु प्रमाणित होना :- गुरू नानक देव या नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे । गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) 15 अप्रैल 1469 ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। तलवंडी पाकिस्तान के लाहौर जिले से 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

(२). गुरु नानक के पिता का ब्राह्मण होना :- नानकदेवजी के जन्म के समय प्रसूति गृह अलौकिक ज्योत से भर उठा। शिशु के मस्तक के आसपास तेज आभा फैली हुई थी, चेहरे पर अद्भुत शांति थी। पिता बाबा कालूचंद्र बेदी ( कंही कालुचन्द्र मेहता तो कंही कालुचन्द्र मेहता पुर्व मे दोनो ही ब्राह्मण हुआ करते थे  )और माता त्रिपाता ने बालक का नाम नानक रखा। गाँव के पुरोहित पंडित हरदयाल ने जब बालक के बारे में सुना तो उन्हें समझने में देर न लगी कि इसमें जरूर ईश्वर का कोई रहस्य छुपा हुआ है।

(३). गुरु नानक देव का एक ब्राह्मण द्वारा शिक्षा दिया जाना :-बचपन से ही नानक के मन में आध्यात्मिक भावनाएँ मौजूद थीं। पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। पंडितजी ने नानक को और ज्ञान देना प्रारंभ किया तो बालक ने अक्षरों का अर्थ पूछा। पंडितजी निरुत्तर हो गए। नानकजी ने क से लेकर ड़ तक सारी पट्टी कविता रचना में सुना दी। पंडितजी आश्चर्य से भर उठे।

(४). नानक का जनेउ ( उपनयन ) संस्कार होना हिन्दुत्व की पह्चान :-जब नानक का जनेऊ संस्कार होने वाला था तो उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि अगर सूत के डालने से मेरा दूसरा जन्म हो जाएगा, मैं नया हो जाऊँगा, तो ठीक है। लेकिन अगर जनेऊ टूट गया तो?
( यंहा यह भी ध्यान देने वाली बात है कि गुरु नानक देव के उपनयन मे सूत का जनेउ ( उपनयन ) पहनाया जा रहा था । सूत का जनेउ वेदिक नियमानुसार सिर्फ़ ब्राह्मणो को ही पहनाया जा सकता है । दूसरे वर्णो जैसे क्षत्रियो का सन का  वेश्यो का भेड एके बाल का आदि होता है )

क्या तुम एक खुदा को मानने वाले ही श्रेष्ठ हो यदि हो तो..............

                                                  ॐ श्री महागणेशाय नमः

क्या नही जानते कि जिस अरब जिसे अर्बस्तान ( श्रेष्ठ घोड़ो का स्थान ) कहा जाता था जंहा की हरियाली-खुशहाली के कारण वंहा के घोड़े प्रसिद्ध थे जब वंहा ब्राह्मण निवास किया करते थे परन्तु आज वंहा न खाने को अन्न है न पीने को पानी आज जंहा मुसलमानो आ सर्वश्रेष्ठ स्थान काबा है जंहा कहा जाता है कि बहुत पवित्र स्थान है और सारी दुनिया के मुसलमान वंहा एक बार जरूर जाते है परन्तु यदि वंहा वास्तव मे किसी के आराध्य का स्थान है तो जो पूर्व मे हरा भरा था वह स्थान आज रेत का ढेर क्युं है वंहा की सरस्वती नदी भी क्युं सूख गई यदि वास्तव मे वह पवित्र स्थान है तो क्युं नही पुकारते अपने अल्लाह को जिससे वह उस स्थान को पहले की ही तरह हरा भरा कर दे । अब उस स्थान मे कोई पवित्रता नही बाकी रह गई है देवता भे उस स्थान को त्याग चुके है । अब तो यदि वह काबा भी भूकम्प से धूल मे मिल जाय तो कोई आश्चर्य की बात नही होगी क्युंकि अब ब्राह्मण वंहा निवास नही करते वेदो मे भी कहा गया है कि

य एनं हन्ति मृदुं मन्यमानो देवपीयुर्धन्कामो न चित्तात् ।
सं तस्येन्द्रो हृदयेऽग्निमिन्ध उभे एन्म द्विष्टो नभसि चरन्तम्॥ अथर्व ५-१८-५॥
धन अभिलाषी जो मनुष्य ब्राह्मण को कोमल समझकर बिना विचारे उसको विनष्ट करना चाहते हैं , वे देवो की ही हिंसा करने वाले होते हैं । एसे पापी के हृदय मे इन्द्रदेव अग्नि प्रज्ज्वलित करते हैं ,एसे विचरते हुए मनुष्य से द्यावा-पृथवी विद्वेष करती है ।

तद् वै राष्ट्रमा स्रवति नावं भिन्नामिवोदम् ।
ब्रह्माणं यत्र हिम्सति तद् राष्ट्र हन्ति दुच्छुना ॥अथर्व ५-१९-८॥
जिस राष्ट्र मे ब्राह्मण की हिंसा होती है ,उस राष्ट्र को आपत्ती विनष्ट कर देती है । जिस प्रकार जल टूटी हुई नौका को डुबो देता है , उसी प्रकार पाप उस राष्ट्र को डुबो देता है ।

 विषमेतद देवकृतं राजा वरुणोऽब्रवीत् ।
न ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा राष्ट्रे जागार कश्च्न॥अथर्व ५-१९-१०॥
राजा वरुण कहते हैं कि ब्राह्मण की संपती हरण करना देवो द्वारा निर्मित विष के समान है । ब्राह्मण का धन हड़प करके राष्ट्र मे कोई जागता ( जीवित या भले-बुरे का ज्ञान ) नही रहता

अश्रुणि कृपमाणस्य यानि जीतस्य वावृतुः ।
तं वै ब्रह्मज्य ते देवा अपां भागमधारयन् ॥ अथर्व ५-१९-१३॥
हे ब्राह्मणो को पीड़ित करने वालो ! दुर्बल तथा जीते गये ब्राह्मणो के जो आंसु बहते है ,देवो ने आपके लिये वही जल का भाग निहित किया है ।

येन मृतं स्नप्यन्ति श्मश्रूणि येनोन्दते ।
तं वै ब्रह्मज्य ते देवा अपां भाग्मधारयन् ॥अथर्व ५-१९-१४॥
 हे ब्राह्मणो को पीड़ित करने वालो ! जिस जल से मृत व्यक्ति को स्नान कराते है तथा जिससे मूछ के बाल गीला करते हैं , देवो ने आपके लिये उतने ही जल का भाग निश्चित किया है ।

न वर्ष मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभिवर्ष्ति ।
नास्मै समितिः कल्पते न मित्रं नयते वशम् ॥अथर्व ५-१९-१५॥
सूर्य और वरुण द्वारा प्रेरित वृष्टी ब्राह्मण-पीड़क के उपर नही गिरती और उसको सभा सहमती नही प्रदान करती , वह अपने मित्रो को अपने वशीभूत ( या मित्रता योग्य ) नही कर सकता

अष्टापदी चतुरक्षी चतुः श्रोता चतुर्हनुः ।
द्वयास्या द्विजिह्रा भूत्वा सा राष्ट्रमव धूनुते ब्रह्मज्यस्य ॥अथर्व ५-१९-७॥
ब्राह्मण पर डाली गई विपत्ती , उस पीड़ित करने वाले राजा के राज्य को आठ पैरवाली ,चार आंख वाली , चार कान वाली ,चार ठोड़ी दो मुख वाली तथा दो जिह्रा वाली ( अर्थात कई गुनी घातक ) होकर हिला देती है ।

विषमेतद देवकृतं राजा वरुणोऽब्रवीत् ।
न ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा राष्ट्रे जागार कश्च्न॥अथर्व ५-१९-१०॥
राजा वरुण कहते हैं कि ब्राह्मण की संपती हरण करना देवो द्वारा निर्मित विष के समान है । ब्राह्मण का धन हड़प करके राष्ट्र मे कोई जागता ( जीवित या भले-बुरे का ज्ञान ) नही रहता

आज क्या ब्राह्मण द्रोहियो को यह सारे लक्षण दिखाई नही दे रहे हैं  क्या वे नही देख रहे कि कैसा हाल है बांगलादेश के निवासियो का भूखे मर रहे है न खाने को है न रहने को जिस कारण भाग-भाग कर वे आसाम मे आ रहे है यह हरा भरा स्थान उनको स्वर्ग सा दिखता है यही सब काश्मीर मे हो चुका है यही सब पहले अरब मे हो चुका है और इसी कारण अरब से आक्रमणकारी हरे-भरे भारत मे आये क्युंकि यह उनको स्वर्ग सा दिख रहा था और उस स्वर्ग को आज उन दुष्ट आक्रमणकारियो ने पाकिस्तान , कांधार आदि रेत के ढेरो मे बदल दिया है सिर्फ़ तेल के भरोसे जीते है और कुछ खाने को नही है इसीलिये आतंक के सहारे पेट भर रहे हैं क्या यही भारतवासी भी इस देश मे देखना चाहते हो । एक बात सदा याद रखो तुम सभी ब्राह्मणद्रोही ब्राह्मण को मिटाने के प्रयास मे समूल नष्ट हो जाओगे परन्तु ब्राह्मण को मिटा न सकोगे कोई देव साथ नही देगा कोई व्रत काम नही करेगा क्या कोई इस धरती के देवता को भी मिटा सका है

वेदमंत्रानुसार ब्राह्मणद्रोहियो की संतानो को हिंसा करने वाले समाप्त कर देते हैं

     ब्राह्मणो पर कृपादृष्टी बनाये रखने वाले देव भगवान श्री गणेशजी को प्रणाम


क्या तुम ब्राह्मणद्रोहियो ने अफ़्गानिस्तान , कांधार काबा आदि सभी स्थानो  मे नही देखा और अनुभव किया कि जंहा पहले  हिन्दुत्व का राज था जंहा ब्राह्मण वेदपाठ व यज्ञ किया करते थे  उस समय वंहा रेत का ढेर न होकर हरियाली और खुश्हाली थी । परन्तु चन्द्रगुप्त के बाद मोर्य वंश मे मिलावट होनी शुरु गई और अशोक ब्राह्मणी और क्षत्रिय की वर्ण-विलोम संकर जाती की संतान ने ब्राह्मणो के यज्ञ आदि को प्रतिबन्धित कर दिया और आसपास के सभी राज्यो पर आक्रमण कर कर के बौद्ध बनाना शुरु कर दिया तब लगभग सभी कुछ बौद्ध मय हो गया था परन्तु फ़िर इन सभी बौद्धो का क्या हुआ जो इनका आज इन जगहो पर नामो निशान भी नही है आइये देखे वेदों मे इनके लिये क्या लिखा है इस विषय मे

ये बृहत्सामा्नमाग्ङरस्मार्पयत् ब्राह्मणं जनाः ।
पेत्व्स्तेषामुभयादम्विस्तोकान्यवयत् ॥अथर्व ५-१९-२॥
जो लोग वृहत्साम वाले (वेदभ्यासी) आंगिरस(तेजस्वी) ब्राह्मणो को सताते हैं उनकी संतानो को हिंसा करने वालों ,पशुओ या काल ने दोनो जबड़ो मे पीस डाला ।

तो वेदमन्त्रो के अनुसार अफ़गानिस्तान,कांधार आदि सभी जगहो पर यही प्रमाणित हुआ और भारत के बहुसंख्यक बौद्धो की संतानो को हिंसा करने वालो ने दोनो जबड़ो मे पीस डाला और आसाम केरल आंध्रा आदि सभी जगहो पर यही सब तो हो रहा है क्या यह सब दिखाई नही दे रहा है ब्राह्मणद्रोहियो अभी भी नही सम्हले तो सभी ब्राह्मणद्रोहियो की संतानो को यह हिंसा करने वाले ,पशु या काल दोनो जबड़ो मे पीस कर उसी तरह समाप्त कर देगा जिस तरह अफ़गानिस्तान, कांधार,काबा ,पाकिस्तान,बांग्लादेश आदि जगहो पर समाप्त किया जा चुका है और आज भी आसाम,कर्नाटक,बंगाल ,उत्तरप्रदेश,केरल आदि जगहो पर लगातार किया जा रहा है और जल्द ही बोम्बे आदि जगहो पर भी शुरुआत हो सकती  है इसी तरह क्या नही देखा या जाना क्या कि किस तरह इन्दिरा एक ब्राह्मण से गौ हत्या के कारण शापित हुई और उनकी संताने किस तरह समाप्त हो गई और भविष्य मे भी क्या वही सब नही होगा वेदमन्त्रानुसार यह सब तय नियमानुसार ही हो रहा है जो भी ब्राह्मणद्रोही हुआ है उसका वंश अवश्य ही पतित हुआ है फ़िर वह ब्राह्मण स्वयं ही क्युं न रहा हो

सभी हिन्दु विरोधीयों से कुछ सवाल .........

                                              ॐ श्री महागणेशाय नमः

  इस धरती पर अनेक जीव-जन्तू और निर्जीव ( पेड़-पौधे आदि ) हैं  कहने वले तो पेड़-पौधो आदि को निर्जीव ही मानते हैं परन्तु इन पेड-पौधो मे भी जान होती है और उन्हे भी जीवो की ही तरह बेहतर देखभाल और प्यार की जरूरत होती है जिसके द्वारा वे पुष्ट होते हैं इसी बात को प्रमाणित किया था एक भारतीय वेज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने शायद आपमे से कुछ इस विषय मे जानते है यदि जानते है तो अच्छी बात है और जो नही जानते है वे जरूर ध्यान से पढें

जगदीशचंद्र बसु ने पेड़-पौधो मे भी जान होती है यह जानने के लिये दो अलग-अलग एक समान वातवरण मे एक समान क्षेत्र मे पेड़-पौधे लगाये और दोनो ही क्षेत्रो मे समान खाद समान पानी दिया जाता था परन्तु एक काम अलग-अलग किइया जाता था वो यह था क एक क्षेत्र के पेड़पौधो को गालियां दी जाती कोसा जाता और उन्हे यह बार बोला जाता कि वे बेकार हैं किसी लायक बही वे कभी अच्छा विकास नही कर सकते वे कभी गुण्वान नही हो स्कते और दुसरी तरफ़ इसके विपरीत बहुत तारीफ़ की जाती उत्साहित किया जाता तो कुछ समय बाद इस सब का यह प्रभाव हुआ कि जिन पेड़-पौधो के साथ अपमानित किया जाता था वे तो सूख गये और जिनकी प्रशंसा की जाती थी वे दो गुनी गती से बड़ने लगे

उपर इस उदाहरण को देने का यह अर्थ है कि इस धरती पर सभी जीव-जन्तुओ को भी इसी तरह प्रशंसा व उत्साहित करने वाली बातो और प्यार के प्रदर्शन आदि की आवश्यकता होती है वेद मन्त्रो मे भी ,पुजा के मन्त्रो आदि से भी यही सब प्रमाणित होता है उन्हे मन्त्रो मे देव्ताओ के समान माना जाता उनकी प्रशंसा की जाती सम्मान का प्रदर्शन किया जाता जो बिल्कुल सही प्रतीत होता है । अब मै यंहा हिंदुओ के देवी देवताओ की विरोध करने वाले उन मुर्खों से कुछ प्रश्न करना चाहता हुं

(१). हिन्दु जो जीवो और पेड़-पौधो तक को यदि देवता की तरह सम्मानित करते है तो इसमे बुराई क्या है ? यह तो प्रमाणित है कि प्रशंसा के रूप मे की जाने वाली पुजा आदि का निश्चय ही लाभ होता होगा और इसके द्वारा सभी लाभान्वित होते ही होंगे ।
(२). क्या वे सभी हिन्दु विरोधी इस विषय मे कुछ भी जानते नही हैं यदि वे वेद मन्त्रो आदि को किसी प्रमान द्वारा प्रमानित नही कर सकते तो अपना मुंह बंद क्युं नही रखते
(३). उन हिन्दु विरोधियो की उस एक ईश्वर की भक्ति मे क्या इतनी सामर्थ्य है कि वे निर्जन और रेत मे बदल चुके उन स्थानो को फ़िर से हरा-भरा व उपयोगी बना सकें
(४). वे हिन्दु विरोधी क्या यह चाहते हैं कि सारी दुनिया को ठीक उसी तरह रेगिस्तान बना दें जैसे उन्होने पहले हरे-भरे रह चुके कांधार, अफ़गान आदि को एक पिशाच की भांति नष्ट कर दिया और लगातार सारी दुनिया को उसी तरह बन्जर और उनुपयोगी बनाने मे रात दिन लगे हुये हैं

इन सभी हिन्दु विरोधीयों (अनार्य समाजी , मुसालेबीमान ,बुद्धु और किसाईयो ) से मै यह पूछना चाहता हुं कि क्या फ़ायदा है एस उस एक ईश्वर का राग अलापने का जिस तक तुम्हारी न तो पंहुच है , न ही तुम उसके योग्य हो । हिंदु विरोधी मुर्खो तुम्हारी योग्यता ही क्या है क्या है तुम्हारा ज्ञान और  उस ईशवर की बनाई इस दुनिया के लिये क्या कर सकते हो और यदि नही कर सकते हो तो क्या फ़ायदा है तुम्हारी जिन्दगी का मै तो समझता हुं एसे लोग मैले मे पैदा होने वाले उन कीड़ो से भी गिरे हुये है वह कीड़ा कम से कम मैला खा कर उसे साफ़ तो कर देता है यदि दिमाग मे मैला न भरा हो तो सोचना जरूर इस बात को कि हिन्दुओ के पुर्वजो के ज्ञान के सामने तुम हो क्या

प्रदुषण की बात करने वालो को सिर्फ़ जल,वायु और ध्वनि यह ३ ही तरह के प्रदुषण क्युं दिखाई देते हैं

                                 भगवान श्री गणेशजी के धूम्रकेतू रूप को प्रणाम
[ शास्त्रो द्वारा कलियुग मे भगवान श्री गणेशजी का धुम्रकेतू नाम से अवतरित होने के प्रमाण मिलते है जो फ़ैले हुये धुये ( अज्ञान,भ्रम ,प्रदूषण व सभी क्षेत्रो मे फ़ैला संकरण आदि ) को समाप्त कर देने वाले होंगे ]

क्या प्रदुषणो की बातें करने वालो को सिर्फ़ जल,वायू और ध्वनि यह तीन प्रदूषण ही दिख पा रहे हैं मै कुछ और प्रदूषणो की और ध्यान दिलाना चाहता हुं

(१).फ़सलो मे तरह-तरह की संकर जातियो को क्षणिक लाभ के लिये लगातार विकसित किया जा रहा है जबकि वे सब यह जानते हैं कि संकर जातियां बीमारियो से बहुत ही जल्दी प्रभावित हो जाती है साथ ही बीज बनने की क्षमता भी प्रभावित होती है इसके साथ ही अनेक दोषो काभी जम होता है जिसके कारण आने वाले समय मे भारत का शुद्ध और गुणवान देशी बीज समाप्त हो जायेगा । यह फ़सलो मे बीज का प्रदूषण है जिसकी तरफ़ शायद किसी का भी ध्यान नही जा पा रहा है

(२).सरकार द्वारा जब भी वृक्षारोपण किया जाता है तब एसे बेकार के पेड़ पौधे लगाये जाते है जो न तो किसी को छाया देते हैं न ही किसी को फ़ल और न ही आक्सीजन आदि ही उत्सर्जित करते हैं जबकि वृक्षारोपण मे आम,पीपल,नीम आदि जैसे पेड़ लगाये जाने चाहिये जिसमे पीपल और नीम तो आक्सीजन की दृष्टी से बहुत ही उपयोगी हैं इनमे से कुछ पेड़ तो रात और दिन दोनो समय आक्सीजन उत्सर्जित करते रहते हैं अन्ग्रेजो ने जाते समय नीलगिरी के पेड़ लगा दिये हैं जबकि नीलगिरी के पेड़ दलदली जगहो पर लगाये जाते है क्युंकि नीलगिरी बहुत तेजी से पानी धरती से जड़ो द्वारा खीचते रहते हैं एसा कहा जाता है कि करीब १५ लीटर पानी प्रतिदिन नीलगिरी का पेड़ धरती से लेता है और एसे ही कईयो बेकार अनुपयोगी नुकसादेह पेड़ पौधो को लगा दिया गया है जैसे अन्ग्रेजी ईमली, गाजर घांस , बेशरम आदि न जाने कितने एसे बेकार धरती और वायु दोनो को प्रदूषित करने वाले पेड़ पौधे हैं ।

(३). एसे ही दुधारू पशुओ मे भी देखो विदेशी नस्ल के जहरीले पदार्थो को दूध मे देने वाले पशु जैसे जरसी गाय आदि जिनका दूध अनेक बीमारियो को जन्म देने वाला है जिसे भारत के पशुविज्ञानी बता चुके हैं जबकि इसके विपरीत शुद्ध देशी नस्ल की एसी अनेक गाये है जो इस दुनिया मे सबसे अधिक दूध देने वाली गाय हैं कुछ महीने पहले पत्रिका मे इस विषय मे एक पशु विज्ञानी का लेख आया था उसी आधार पर देशी गायो पर यह लेख www.facebook.com/notes/आस्तिक-विनेक-दुबे/भारतीय-गाय-इस-धरती-पर-सभी-गायो-मे-सर्वश्रेष्ठ-क्यूँ-है-/149597388426812लिखा गया था जिसमे विदेशो मे सभी गायो के साथ हुई प्रतियोगिता मे भारतीय नस्ल की गायो ने सबसे अधिक दूध देते हुये प्रथम,द्वितीय व तृतीय तीनो स्थान प्राप्त किये थे साथ ही देशी नस्ल की गायो के दूध अनेक एसे तत्व होते है जो विकिरण और केंसर आदी अनेक बीमारियो से लड़ने मे सहायक है । और अब तो देशी गायो को कृत्रिम गर्भाधान द्वारा  एक नई संकर जाती की विषैली पीड़ी को जन्म दिया जा रहा है और यह संकरण चाहे जीवो मे हो फ़सलो मे या पेड-पौधो मे हो या फ़िर वो मनुष्यो मे ही क्युं न हो सभी मे एक जैसा विषैला प्रभाव होता है

सभी क्षेत्रो मे प्रदुषण का एक ही कारण है और वो है संकरण तो यदि प्रदूषण को मिटाना है तो संकरण को ही मिटाना ज्यादा जरूरी है यही सभी तरह के प्रदूषणो की जड़ फ़िर वो चाहे जल-प्रदूषण ,वायु-प्रदूषण,ध्वनि-प्रदूषण,वैचारिक-प्रदूषण,धार्मिक-प्रदूषण या वो किसी भी तरह का प्रदूषण क्युं न हो आज भ्रष्टाचार भी एक तरह का प्रदुषण ही है

मृत्यू के पश्चात किसे गाड़ा जाता है और किसे जलाया जाता है और क्युं

                                   ॐ श्री महागणेशाय नमः



 आप सोचते है कि सिर्फ़ मुसलमानो या आदिवासियो मे ही मृतक को गाड़ा जाता है परन्तु एसा नही है हिन्दुओ मे भी मृतक को गाड़ा जाता है परन्तु गाड़े जाने के कारण हैं


मृतको को गाड़े जाने का कारण :--
हिन्दुओ मे सिर्फ़ बच्चो को गाड़ा जाता है जिनकी उम्र कम होती है यह एसे बच्चे होते है जिनको सिर्फ़ खाना , सोना और मैला करना आता है । एसे अपरिपक्व बच्चो या जीवात्माओ को जलाया नही जा सकता क्युंकि एसी अपरिपक्व जीवाअत्माएं शरीर से अलग होने के बाद पृथ्वी के वायुमण्डल को भेद नहीं सकती और भटक जाया करती हैं और लोगों को पीड़ित करती हैं इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि एसी आत्माएं शरीर पाकर अपनी इच्छाएं की पूर्ती की ही सदा कामना करती हैं और प्रयासरत रहा करती है आपने तो देखा ही होगा बच्चो के व्यव्हार को जो अच्छा लगा जिद करने लगे , या पसंद आई वस्तू छुड़ा ली सब अपना ही दिखता है उनको यही कारण है जब किसी कारण बच्चो की अकाल मृत्यू होती है तो इच्छाओ की पूर्ती न होने के कारण वे गति को प्राप्त नही कर सकती । अतः एसे मे यदि इनके शरीरो को जला दिया जाय तो निशचय ही यह आत्माएं भटक जायेंगी अतः इनके शरीरो को गाड़ दिया जाता है जिससे वे आतमाएं स्थिर रहें और परिवार जन उनकी आत्मा की मुक्ती के लिये विषेश प्रयास कर सकें ।

हिंदुओं मे कुछ जातियों वयस्कों को भी गाड़ा जाता है इसके पीछे उनका उद्देशय यह हुआ करता है कि वे मुक्ती नही पाना चाहते , कुछ जीवित समाधी भी ले लेते हैं जैसे बाबा रामदेव पीर और और भी कई साधू स्वाभाव वाले व्यक्ति इनमे आते है इनका यह उद्देशय होता है कि उनका प्रभाव सदा रहे यह भी मुक्ती नही पाना चाहते

मृतकों को जलाये जाने का कारण :--
जलाया उन मृतको के शरीरो को है जो परिपक्व हो चुके हो अच्छा बुरा जानते हों अपने और दूसरे के अधिकारो आदि को समझते हो वैसे आप उपर लिखी बातो से समझ ही चुके होगे ज्यादा विस्तार से बताने कि आवश्यकता नही है और जलाने से पहले इन सभी को शास्त्रो आदि के द्वारा यह ज्ञान करा दिया जाता है कि आत्मा के शरीर से अलग होने के बाद क्या अनुभव होता है और किस प्रकार आत्मा गती को प्राप्त कर सकती है जब तक मृतक के शरीर को जलाया नही जाता आत्मा गती प्राप्त नही कर सकती


अब आप सोच सकते हैं कि मुसलमानो और ईसाईयों मे गाड़ा जाने का क्या अर्थ है इसी तरह आप यह भी समझ सकते हैं कि जो पीर-फ़कीरों की कब्रें है यह सब क्या हैं और क्यु हैं ? यह एक तरह का आध्यात्मिक प्रदूषण है जो हिन्दुत्व की पवित्रता को दूषित कर रहा है इसको समाप्त करने के लिये विषेश अनुष्ठानो की आवशयकता है जो हिंदुओं द्वारा किये जाने चाहिये

कहते है भगवान अच्छे लोगों को जल्दी उठा लेते हैं

                                               ॐ श्री महागणेशाय नमः




    मैने अकसर सुना और देखा भी है कि जो बहुत अच्छा होता है , मिलनसार होता है , सबका भला चाहने और करने वाला होता है उसकी मृत्यू समय से पहले ( अकाल ) हो जाया करती है और एसे समय कहा जाता है भगवान अच्छे लोगो को जल्दी उठा लेते हैं । अब यह बात तो उस साधारणतः समझ से बाहर है और लोगो का भगवान को एसा कहना कि भगवान अच्छे लोगों को जल्दी उठा लेते है सी्धे भगवान पर ही दोषारोपण करने के समान है बात असल मे यह है कि भगवान उसे इसलिये उठा लेते है क्युंकि वो अच्छा तो होता है परन्तु वह भगवान की बनाई इस दुनिया मे अपने प्रभाव से हस्तक्षेप करते हुये अनाधिकृत परिवर्तन करने का प्रयास करता है वह कैसे अब यह समझने के लिये आप मानिये कि गणित मे शून्य से नौ तक की संख्या जो एक दूसरे से छोटी बड़ी तो हैं परन्तु महत्व सभी का समान है अब आप किसी का कोई भी गणित संबंधित कार्य कर रहे और अब आप मेहनती भी है समय पर कार्य करने वाले भी है परन्तु आप यंहा अन्कों के छोटे-बड़े होने से दुखीः हैं और आप सभी को समान बता रहे है और उसी अनुसार गणित संबंधी कार्य कर रहे है । अब सीधी सी बात है आपको तो लात मारकर भगाया जाना तय है । इसी तरह इस संसार का भी व्यापार चलता है इस संसार मे छोटे बड़े सभी है परन्तु महत्व सभी का बराबर है परन्तु तब भी सभी की श्रेष्ठता मे भिन्न्ता होना निश्चित भी है और जरूरी भी अब यह अच्छे कहलाने वाले महान जीव बस यही गलती करते हैं कि सभी भिन्न्ताओं के महत्व को न स्वीकार करते हुये श्रेष्ठता की भिन्न्ता को समाप्त कर ईश्वर के व्यवसाय मे बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं बस यही कारण होता कि भगवान उन्हे उनके अच्छे होने के कारण अपने पास नही बुलाते बल्कि दण्डित करके भगा देते है । आप खुद ही सोचो यदि वे वास्तव मे अच्छे होते तो भगवान उन्हे उस धरती से क्युं अकाल मृत्यु के रूप मे दण्डित करते जबकि इस धरती को तो अच्छे लोगो की जरुरत होती है नही तो क्युं भगवान बार-बार अवतार लेते और उसी भिन्न्ता ( वर्ण आदि ) को प्रतिष्ठित करते जय हो जरा गम्भीर होकर सोचो भाईयों नही तो ज्यादा अच्छा बने और एक को नौ या नौ को एक बनाने का प्रयास किया तो सोच लो क्या होगा ?

संस्कृत के सर्वसाधारण द्वारा प्रयोग को प्रतिबंधित किया जाना चाहिये क्युंकि

                                            ॐ श्री महागणेशाय नमः

    संस्कृत को सभी साधारण मनुष्यो द्वारा प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिये क्युंकि इसके भी कारण है । आप आज अक्सर देखा करते होंगे कि कईयों स्कूलो मे योग शिविरो मे और पाखण्ड़ी ज्योतिषियों व नकली व भ्रष्ट हो चुके लोग द्वारा समानता व सबके समान अधिकार के नाम पर आज संस्कृत का प्रयोग पुरी मुर्खता के साथ किया जाता है बड़े-बड़े महान संत पैदा हो गये हैं और वे अपने अनुयाई बनाने के लिये सारे गलत काम किया करते हैं । अब आपको मेरा ही देखा हुआ एक उदाहरण बताता हुं हमारे ही घर से थोड़ी दूर एक परिवार रहता है पहले तो उस परिवार का व्यवसाय देखिये कि वो नाम के लिये गाय-बैल आदि खरीदने-बेचने का कार्य करता है परन्तु इसके आड़ मे वह गायो को कसाइयो को बेच दिया करता है यही उसका असली व्यव्साय है अब उसी परिवार का बच्चा स्कूल जाता है जंहा उसे गयात्री मन्त्र बुलाया जाता है चलो स्कूल मे बुलाया जाता है यह तो ठीक है परन्तु अब वही मन्त्र वह कभी भी कंही भी बेहूदे तरीके से चिल्लाता रहता है एक दो बार तो उसे पाखाने मे भी बोलते हुये सुना है यार यह सब तो बहुत ही गलत है । और एक बात हिन्दुओ मे जो चौथा वर्ण है उनमे से लगभग सभी कसाइयो के यंहा जाकर गौ मान्स लाकर खाते हैं अब आप खुद ही सोचिये कि क्या यह लोग मन्त्रो के विषय मे जरा भी जानने के योग्य हैं  इसके अलावा भी और दुसरे कारण है जिनके अनुसार संस्कृत को सामन्य मनुष्यों द्वारा उच्चारित करने या जानने को भी प्रतिबंधित किया जाना जरूरी है नीचे देखिये-

(१). संस्कृत* के उच्चारण से होते है प्राणायाण- संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। और नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि। अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा। कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है । परन्तु यदि संस्कृत से प्राणायाम सिद्ध होता है तब तो संस्कृत का प्रयोग करते समय प्राणायाम से संबंधित नियमो का भी पालन करना जरूरी हो जाता है जिसका कुछ नियम हैं-
(अ). शान्त स्थान का होना
(ब). धूल रहित स्थान होना
(स). गन्दगी रहित होना
(द). बदबू न होना
(ई). हवा मे नमी न होना
(फ़) हवा मे गर्मी न होना
(ग) सुनसाम स्थान न होना आदि इस तरह अनेक नियम है जिनका प्राणायाम के समय पालन करना जरूरी है इसके विपरीत प्राणायाम व संस्कृत दोनो का प्रयोग या अभ्यास करने पर आयू क्षीण होने के साथ-साथ शरीर रोगी भी हो जाता है इसीलिये बाबा रामदेव जैसे लोगो द्वारा सिर्फ़ पैसे के लिये कंही भी प्राणायाम व आसन कराये जाने का मै पुर्ण विरोधी हुं और उन सम्प्रदायो का भी जो किसी को भी मन्त्रादि के उच्चारण का अधिकार दे देते हैं जिनमे गायत्री परिवार , आर्य समाज ,लालची ज्योतिषी , समानता व अधिकार के नाम पर मौत एके कुये मे लोगो को ढकेलने वाले मुर्ख व नाम के समाजसेवी । और वे मुर्ख मनुष्य जो आज स्वयं को महान समझकर खुद ही बिना कुछ जाने संस्कृत के मन्त्रो का प्रयोग करते हैं इसी तरह सुनने मे आया है कि विदेशो मे भी संस्कृत काप्रयोग किया जाने लगा है और उनके द्वारा यह कहा जाता है कि सम्स्कृत के उच्चारण से मनुष्य बुद्धीमान बनते हैं परन्तु अधिकतर विदेशो मे या तो हवा मे बहुत नमी होती है या बहुत गर्मी या फ़िर धूल आदि भी होती है कुछ मुर्ख विदेशी तो एयर कंड़ीशन मे बैठकर संस्कृत का प्रयोग करते हैं

(२).संस्कृत के विकृत उच्चारण से उपजी शब्दो की प्रतिध्वनियां -संस्कृत के विकृत उच्चारण से उपजी शब्दो की प्रतिध्वनियां बहुत समय तक वायुमण्डल मे रहने के कारण अनेको बार सभी स्थानो पर प्रभाव डालती रहती है जिससे उच्चारण करने वाला तो प्रभावित्र होता ही है साथ ही आसपास के लोगों को भी इसका दुष्प्रभाव झेलना होता है

(३).तन-मन की शुद्ध्ता का जरूरी होना- आज जिन्हे गायत्री परिवारों , अनार्य समाजियों ,पाखण्डी बाबाओ ,गुरुओं व धूर्त व पैसे के लालची लोगों व ज्योतिषियों द्वारा मन्त्रो आदि का अनाधिकृत ज्ञान दिया जा रहा है वे लगभग सभी मांसाहारी है और अधिकांश गंदगी से रहा करते हैं कुछ अपवाद हो सकते है परन्तु अपवादो की मान्यता नही होती इनमे से कईयो तो गौ मांस का भक्षण भी करते हैं कईयो मल-मुत्र का त्याग करने के पश्चात हाथ धोना भी जरूरी नही समझते यदि मन्दिर जाने वाले सभी लोगो पर नजर रखी जाय तो कईयों तो एसे होंगे जो मुत्र त्यागने के बाद सीधे मन्दिर मे घुस जाते हैं और एसी गन्दगी एक वर्ग विषेश जरूर करता है । और इन जैसे सभी लोगोंको अनार्य वेद पाठ व हवन आदि कराना भी सिखा रहे हैं जिसमे स्त्रियो को एक व्यवसायिक पाठ्यक्रम के अनुसार यह सब सिखाया जा रहा है इन धूर्त अनार्यो के लिये हवन-यज्ञ आदि सिर्फ़ एक व्यव्साय है अब यही स्त्रियां महीने के उन दिनो मे भी यह सब धार्मिक अनुष्ठान कराया करेंगी क्या यह अनार्य समाजी इसे रोक सकते हैं

अब यह सब जानने के बाद आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि उक्त सभी सम्प्रदाय , गुरु व महात्मा आदि धूर्त , पाखण्डी क्या मुर्ख नहीं हैं या एसा कि द्वेश की भावना से एसा कर रहे हैं आने वाले समय मे यह सभी रोगी होकर अपनी आयू तो क्षीण करेंगे साथ ही दुसरो के लिये भी कष्ट का कारण होंगें

*संस्कृत के विषय मे अधिक जानकारी के लिये इस लिंक  http://sanskritbhasha.blogspot.com/2005/08/blog-post_19.html पर जरूर देखें इस लेख मे कुछ अन्श इस लिंक से लिये गये हैं

सुना है पश्चिमी मलेच्छ्य (इन्द्रिय सुख की ही इच्छावाले ) संस्कृत सीखकर बुद्धीमान बन रहे हैं

                                                   ॐ श्री महागणेशाय नमः
अभी कुछ दिनो पहले मैने पढ़ा था कि विदेशों मे संस्कृत के महत्व व गुण को जानकर विद्यालयो मे संस्कृत सिखाई जा रही है जिसके प्रभाव से पश्चिमी मलेच्छ्य ( इन्द्रिय सुख की ही इच्छा वाले ) बुद्धीमान बन सकें हा हा हा हा हा हा माफ़ कीजियेगा मुझे बहुत हंसी आ रही है यह सब देखकर मुझे इसलिये हंसी आ रही है क्युंकि भाई इनकी मूर्खता दिखाई दे रही है और सिर्फ़ यह भारतीयो की योग्यता से प्रभावित होकर सिर्फ़ नकल करने का प्रयास कर रहे हैं आप तो सभी जानते है कि नकल के लिये भी अकल होनी जरूरी है एसा मै इसलिये कह रहा हुं कि पशचिमी स्थान एसे हैं हे नहीं कि वंहा संस्कृत का कोई भी शब्द बोला जाय यदि एसा किया गया तो इसका भयानक परिणाम आयु की कमी व रोगी शरीर के रूप मे भोगना होगा इस बात को समझने के लिये आपको संस्कृत के विषय मे एक बहुत जरूरी बात समझनी होगी वो यह है कि संस्कृत सिर्फ़ एक भाषा न होकर एक पुरा का पूरा योग शास्त्र है जिसे बिना जाने भी सिद्ध किया जा सकता है परन्तु नियमो का पालन जरूरी है अब जानिये संस्कृत की कुछ गहरी  बातें
संस्कृत* के उच्चारण से होते है प्राणायाण- संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। और नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि। अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा। कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है । परन्तु यदि संस्कृत से प्राणायाम सिद्ध होता है तब तो संस्कृत का प्रयोग करते समय प्राणायाम से संबंधित नियमो का भी पालन करना जरूरी हो जाता है जिसका कुछ नियम हैं-
(अ). शान्त स्थान का होना
(ब). धूल रहित स्थान होना
(स). गन्दगी रहित होना
(द). बदबू न होना
(ई). हवा मे नमी न होना
(फ़) हवा मे गर्मी न होना
(ग) सुनसाम स्थान न होना आदि इस तरह अनेक नियम है जिनका प्राणायाम के समय पालन करना जरूरी है इसके विपरीत प्राणायाम व संस्कृत दोनो का प्रयोग या अभ्यास करने पर आयू क्षीण होने के साथ-साथ शरीर रोगी भी हो जाता है

अब आप खुद समझ जाइये कि जिन पश्चिमी देशो मे हवा मे नमी अधिक होती है साथ ही एक साथ बन्द कमरो मे कई-कई विद्यार्थी एक साथ पढा करते हैं जिनके द्वारा छोड़ी गई कार्बण गैस संस्कृत का उच्चारण करने से होने वाले प्रणायाम व बन्ध आदि लगने के कारण इन बेचारे विद्यार्थियों की आयु क्षीण तो होगी ही साथ ही यह रोगी भी हो जायेंगे इन नकल करने वालों को शायद यह नही पता कि संस्कृत इनके देशो मे पढ़ने-बोलने के लिये नही बनी है और यदि अनाधिकृत रूप से इसका प्रयोग किया जायेगा तो इसका दुष्परिणाम भी भोगना होगा यह मूर्ख शायद नही जानते कि संस्कृत सिर्फ़ भारत मे प्रयोग होने के लिये ही विकसित हुई है वैसे आप क्या कहते हैं इस विषय मे

संत कौन

                                                   ॐ श्री महागणेशाय नमः

 मै आजकल जिधर देखता हुं संत ही संत दिखाई देते हैं कोई भगवा वस्त्र पहनकर जड़ी-बूटियां बेच रहा है कोई योग बेच रहा है कोई सन्त बनकर प्रवचन देकर लोगो को अपना अनुयाई बनाने मे लगा है कोई तिलक लगा भभूत चुपड़ बैठा है वो भी संत कहला रहा है परन्तु एसे लोगो को संत कहने वाले यह जानते भी नही हैं कि संत कहा किसे जाता है जरा देखें

संत:- संत उसे कहा जाता है जो सत्य की रक्षा के लिये अन्त तक संघर्ष करे और फ़िर इस कार्य के लिये उसे शस्त्र ही क्युं न उठाना पड़े और सत्य के विरोधियों और सत्य को दूषित करने वालो को समूल मिटाना ही क्युं न पढ़े

अब बताओ क्या आप बाबा रामदेव को संत कहना चाहिये क्या आशाराम को संत कहना चाहिये जिसने भगवान श्री राम की बराबरी करने के लिये अशारामायण बना डाली है हद्द होती है साय  को संत कहा जाता है सत्य साय को संत कहा जाता है और भी न जाने कितने एसे पाखण्ड़ी संत है मुझे बताओ यह कौनसे सत्य की रक्षा के लिये संघर्ष कर रहे हैं सब सिर्फ़ पैसा कमा रहे हैं और देखना यही पाखण्डी संत धीरे-धीरे एक नये सम्प्रदाय के रूप मे विकसित हो जायेंगे साय का एक अलग सम्प्रदाय होगा आशा बाबा का अलग एसे न जाने कितने सम्प्रदाय इन पाखण्डी संतो द्वारा बना दिये जायेंगे

लिंग (श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार)पूजा को अश्लील कहने वालो से मेरे कुछ जरूरी सवाल

ॐ श्री महागणेशाय नमः

सभी धर्मपालकों ( हिन्दुओ ) का विरोध करने वाले जो लिंग पूजा को अश्लील मानते हैं सिर्फ़ उनसे ही मै कुछ सवाल करना चाहता हुं  और आशा करता हुं कि वे इस लेख मे पूछे गये सवालो का ही जवाब देंगे और इन्ही बिंदुओं पर केंद्रित रहेंगे

(१). लिंग (श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार)पूजा को अश्लील मानने वालो की द्रुष्टी मे क्या स्त्री और पुरुष का विवाह भी अश्लील है । यदि लिंग एक अश्लील शब्द या अन्ग है तो उनकी क्या मज्बूरी है इस अश्लील जीवन को जीने की

(२). लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा को अश्लील मानने वाले क्या पति-पत्नि के पवित्र संबन्धो को भी अश्लील मानते हैं क्या यदि हाम तो इन मूर्खो की इन सम्बन्धो मे बंधने की क्या आवशयकता है

(३).लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा को अश्लील मानने वाले क्या पति-पत्नि के पवित्र मिलन ( एसा सिर्फ़ हिन्दु मानते है शायद बाकी तो इसे अश्लीलता का हे नाम देते होंगे ) से जन्मे बच्चों को भी अश्लील्ता का प्रमाण मानते हैं क्या

(४).लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा को अश्लील मानने वाले क्या अपने माता-पिता के पवित्र सम्बन्धो को भी अश्लीलता मानते हैं

(५).लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा को अश्लील मानने वाले क्या अपने जन्म को भी अश्लीलता का प्रमाण मानते हैं

(६). लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा को अश्लील मानने वाले क्या अपने बच्चों के जन्म को भी अश्लीलता मानकर खुशियां न मनाकर शर्म व घृणा से मुह मुह फ़ेर लेते हैं

(७).लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा को अश्लील मानने वाले क्या अपने पूजनीयों , आदर्णीयों ,अवतारो व देवो आदि के जन्म को भी अश्लीलता का प्रमाण ही मानते हैं क्या

यदि वास्तव मे एसे लोग लिंग(श्रेष्ठ सृजन का प्रतीक व आधार) पूजा और संबन्धित बिंदुओ को सिर्फ़ अश्लीलता ही मानते है तो एसे लोगों को एसा जीवन जीने की कोई आवश्यकता नही है और न ही क्युंकि  एसे लोगों का जीवन उनके स्व्यं के अनुसार ही अश्लील हो जाता है मै एसे घृणित सोच रखने वालों से जवाब की इच्छा रखता हुं

बुधवार, 20 जून 2012

आत्मा का विकास


                                                       विध्नकर्ता भगवान  श्री महागणेशजी की जय   


जिस तरह जीवन के क्रमिक विकास के कारण आज मनुष्य का अस्तित्व है ठीक उसी तरह आत्मा का भी विकास होता है आत्मा तरह-तरह के जीवो-निर्जीवो को शरीर के रूप मे धारण करती है और जब वह उस जीव के सभी कर्तव्यो को पुरी तरह निभा लेती है तब ही उसे आगे और अधिक उन्नत और विकसित जीवो के शरीर विकास के लिये प्राप्त होते है एक ही जीव मे अनेक वर्ण के जीव होते है और उसे प्रत्येक वर्ण के जीवो के शरीर क्रम से धारण करने होते हैं । इसी तरह मनुष्य रुपी जीव की अनेक जातियो और वर्ण को आत्मा के विकास के लिये प्राप्त करना जरूरी होता है । इस मोक्ष का कोई भी शार्ट्कट नही है ? और मोक्ष का अर्थ सिर्फ़ यह है कि आत्मा को इस धारती पर दुबारा जीवधारियो के शरीर धारण नही करने होगे परन्तु आत्मा को परमात्मा तक पहुचने के लिये कितना विकास करना होगा और किस तरह के कितने शरीर धारण करने होंगे इसका पुर्ण विवरण करने मे देवता भी असमर्थ हैं ? और इस धरती पर आत्मा के विकास के लिये जीवो की सभी जातियो और वर्णो का होना बहुत ही जरूरी है । और जो भी सन्त देवता और शास्त्र सभी को समान बताते है और मानते है ,वे सिर्फ़ हमको भ्रमित करने का प्रयास भर है ।आदि देव भगवान श्री महागणेशजी के इस धरती भगवान शिव के [पुत्र रूप मे अवतरित होने से पहले कर्मो से विमुख होकर मोक्ष आदि प्राप्त किया जा सकता था परन्तु शास्त्र बताते हैं कि भगवान गणेश कर्मो से विमुख होकर मोक्ष प्रप्ति के प्रयास करने वालो के मार्ग मे महा अवरोध उत्पन्न कर देते हैं ।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

मंदिरॉ की इस धरती पर आवश्यकता

मंदिर इस धरती पर क्या है और इनकी आवश्यकता क्या है ? हमारे पूर्वज बहुत ही महान और सारी मानव जाती के उत्थान के लिए प्रत्येक कार्य करने वाले रहे हैं । इसी क्रम मे मंदिरों का निर्माण किया गया और देतावओं को प्रतिष्ठित किया गया है , जिससे साधारण मनुष्य भी दिव्य चेतनाओं के शुभ प्रभाव से लाभान्वित हो सके और इस संसार मे सहायता और लाभ प्राप्त करके सामाजिक , आर्थिक व आत्मिक आदि सभी प्रकार का उत्थान कर सके । अब बात आती है की मंदिर आखिर इस धरती पर हैं क्या ?, तो मंदिर इस धरती दिव्य-चेतनाओ के छोटे-छोटे शक्ति-पीठ या शाखाएँ हैं ।इन छोटे-छोटे शक्तिपीठों की आवशयकता यह है की साधारण मनुष्य मानसिक व शारीरिक रूप दोनों से इतना शुद्ध नही होता है कि वह ब्रह्मांडीय दिव्य चेतनाओ से सीधे संबंध स्थापित कर सके या उनसे किसी तरह का लाभ लेकर उत्थान कर सके । ब्रह्मांडीय दिव्य चेतनाए भी साधारण मनुष्यों से सीधे संबंध स्थापित नही कर सकती क्यूंकी उनकी तन-मन की अशुद्धता इसमे बाधा बनती है । तन-और मन से गंदे रहने वाले यदि दिव्य प्रभावों के संपर्क मे आते हैं तो दिव्यता प्रभावहीन हो जाती हैं । जैसे किसी बहुत बड़े उद्योग का अनेक शहरों मे स्थापित छोटी-छोटी शाखाओं से संबंध होता है उसी तरह देवता विशेष के मंदिरों का संबंध देवता विशेष से होता है । अब बात आती है मंदिरों के पुजारियों की । किसी भी देवता विशेष के मंदिरों मे दिव्य चेतनाओं से सही समंजस्य बनाए रखने के लिए साधारण मनुष्य योग्य नही हो सकते , क्यूंकी वे शारीरिक व मानसिक रूप से शुद्ध नही हो सकते ? मंदिरों मे एसे मनुष्यों की आवश्यकता होती है , जो शारीरिक व मानसिक रूप से शुद्ध रहे और सदा रहने का प्रयास करें । यदि एसे मनुष्य जो पूर्वजों के द्वारा लगातार तन-मन से शुद्ध रहने के कारण अब आनुवांशिक रुप से अब इतने विकसित हो चुके हैं कि जो जन्म से ही तन-मन की शुद्धता प्राप्त कर लेते हैं और दूषित होने पर भी थोड़े ही प्रयासों से शुद्ध हो जाते हैं मिल जायें तो मंदिरों व दिव्य कार्यों के लिए उनसे श्रेष्ठ कौन हो सकता है ।