ब्रह्म स्वरूपाय श्री महागणेशाय नमः
जिस समाज, मनुष्य व जाति में वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं,
गोत्र-प्रवर की सुव्यवस्था का गम्भीर विचार नहीं किया जाता उस जाति पर देव,
शक्ति, प्रकृति, आर्यमां आदि कुल पितरो की कृपा नहीं रहती तथा ऐसी
जाति-मनुष्य वर्ण संकर, पथ भ्रष्ट, शास्त्र व धर्म विरोधी तथा अपनी कुल
मर्यादा को कलंकीत करने वाले होते है। इसकी व्याख्या हमारे वेदों में वैदिक
कल्पसूत्रों में तथा स्मृति और पुराणों में गोत्र-प्रवर की हमारे धर्म
प्रवर्तक ब्रह्म महाऋषियों की विस्तृत चर्चा है।
ब्रह्मवंश व आर्य-संस्कृति में गोत्र और प्रवर का विचार रखना सर्वोपरि
माना गया है। सनातन धर्मी आर्य जाति की सुरक्षा के लिये चार बड़े-बड़े दुर्ग
हैं।
प्रथम:- गोत्र और प्रवर जिसके द्वारा समाज अपनी पवित्र कुल परम्परा पर
स्थिर एवं लक्षित रहता है।
द्वितीय:- रजोवीर्य शुद्धि मूल वर्ण व्यवस्था
जिसमें जन्म से जाति मानने की दृढ़ आज्ञा है और तप, स्वाध्याय निरन्तर
ब्राह्मण ब्रह्मवंश जाति के नेतृत्व में संचालित होने की व्यवस्था है।
तृतीय:- आश्रम धर्म की व्यवस्था है जिसमें आर्य सनातन-ब्रह्मवंश
सुव्यवस्थित रूप से धर्म मूलक प्रवृति के मार्ग पर चलती हुई भी निवृति की
पराकाष्ठा पर पहूंच जाती है।
चतुर्थ:- वर्ग सतित्व मूलक नारी धर्म की
सहायता से आर्य जाति तथा अद्भूत ब्रह्मवंश कुल परम्परा की महान पवित्रता
है।
इन चार अटल दुर्गों में शास्त्रार्थ गोत्र एवं प्रवर पर सदा लक्ष्य
रखने वाला दुर्ग कितना महान और परम आवश्यक है जिसको बताना व समझना तथा
मानना समाज के हित में अति आवश्यक है।
परन्तु समाज के सम्पन्न, ताकतवर, आड़म्बर युक्त बड़े समूह का निर्माण कर
लोगों ने स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अपने स्वार्थ के लिए अज्ञानता वश
गोत्र-प्रवर महिमा को भूला दिया और इस आधुनिक युग में वो विपथगामी होकर
अपना प्रवर ही भूल गये और उनके अन्तकरण में इतना अज्ञान व्याप्त हो गया कि
वो अब संगोत्र-विवाह सामाजिक, शास्त्र विरोधी मान्यता एवं कानून द्वारा
चलाना चाहते है।
सृष्टि सृजन से अब तक आर्य जाति- ब्रह्मवंश अपने ऋषि गौत्र रूप
में विद्यमान है। चतुर्युगी सृष्टि एवं मनवन्तर की तो बात ही क्या-कल्पादि
और महा कल्पादि की आदि-सृष्टि के साथ-साथ गौत्र-प्रवर सम्बन्ध अटूट है,
क्योंकि सृष्टि सृजन एवं अद्भूत ब्रह्मवंश की उत्पति सृष्टिकर्ता जगत पिता
ब्रह्माजी के दस मानस पुत्रों द्वारा रची गई है।
ब्रह्मऋषि पुत्रों की उत्पति ब्रह्माजी के मुख से महा ऋषि अंगीरा, नेत्र
से अमी, प्राण से वशिष्ठ के साथ, मन से मरिची, कानों से पुलस्त्य, नाभि से
पुलह, हाथ से ऋतु, अंगूठे से पचेता, त्वचा से भृगु और गोद से नारद जैसे दस
महा तेजस्वी महा ऋषियों को ब्रह्मा ने उत्पन्न किया और इन्हीं ऋषियों के
पुत्र के रूप में उन्हीं से सप्त ऋषियों की उत्पति हुई जो शोक्रत, गौतम,
पराशर, भारद्वाज, उदालिक, यमदग्नि, विश्वामित्र जैसे परविख्यात तेजस्वी ऋषि
उत्पन्न हुए। जिन ऋषियों से ही गौत्र व उनके पवित्र चरित्र से श्रेष्ठ तथा
सुसंस्कारित वंश विस्तार से प्रवर का सम्बन्ध चला हैं तथा ब्रह्म वंश की
118 गौत्र सहित सैंकड़ो ब्राह्मण एवं आर्य जाति के गौत्र-प्रवर का निर्माण
हुआ है।
गोत्र-प्रवर के विज्ञान की महिमा हैं कि हिन्दु जाति तब से अब तक जीवित
हैं। धर्म, शास्त्र, ग्रन्थ, वेद-पुराण, देव शक्ति जगत पर विश्वास करने
वाली वर्णाश्रम व्यवस्था अपनी वंश-कुल-मर्यादा की पवित्रता की रक्षा
गौत्र-प्रवर से कर सनातन धर्मी लोगों ने अपने अस्तित्व की रक्षा अब तक की
हैं।
आजकल ब्रह्मवंश ब्राह्मण्ड राजपुरोहित जाति में अनेक प्रकार के
पतन के लक्षण दिखाई देते हैं उसका मुख्य कारण यह है कि ब्रह्मवंश समाज
गौत्र-प्रवर की महिमा भूल गई हैं और जो लोग जाति गौत्र प्रवर की महिमा
जानते है और शास्त्रार्थ कर्म को फलित करते है उनमें आज भी ब्रह्म तेज
दिखाई देता हैं। शास्त्र आज्ञा के विरूद्ध चलने का धर्म शास्त्र निषेध करते
हैं।
ब्रह्मवंश, ब्राह्मण, आर्य जाति में धनाधीपति, सांसण-जागीर-सोना नविश,
बड़ी जात, बड़े गांव या विराट परिवार तथा शक्तिशाली व्यवस्था से श्रेष्ठ नहीं
माना गया है और ना ही क्षत्रियों के साथ रहने से या दान में मिले गांव या
जमीन के टूकड़े से श्रेष्ठ नहीं माना गया हैं बल्कि श्रेष्ठता उसकी
गोत्र-प्रवर की शृद्धता से है, उसकी कुल परम्परा से है। जिसका प्रवर (खून)
शुद्ध है वो श्रेष्ठ है तथा गोत्र-प्रवर की शुद्धता का मत है कि कोई भी
जाति अथवा मनुष्य अपनी वंश बेल को आगे बढ़ाने हेतु अपने माता-पिता की गोत्र
से बाहर विवाह सम्बन्ध स्थापित कर सन्तान उत्पन्न कर अपनी वंश वृद्धि करें
तो उसका प्रवर शुद्ध तथा श्रेष्ठ है और यदि अपनी संगोत्र में विवाह करें,
अपनी माता की संगोत्र प्रवर में विवाह करें तथा अपनी माता की गोत्र की
पुत्र वधु-पोत्र वधु लाए तथा अपनी कन्या का विवाह माता की संगोत्र में करें
तो गोत्र व प्रवर समूल नष्ट है तथा शास्त्र व धर्म विरूद्ध निकृष्ट कृत्य
माना गया है ऐसे विवाह बहन को भाई की भार्या बनाने के समान है, ऐसा करने व
कराने वाले नरकगामी होते है। संगोत्र विवाह मॉ को तथा बहन को पत्नी बनाने
के समान माना गया है। इससे वंश प्रवर समाप्त हो जाता है, कुल कलंकित तथा
वर्णशंकर श्रेणी में निम्न स्तर माना गया हैं जिसे धर्म निति, शास्त्रो,
वेद-पुराणों में निषिध अधर्म युक्त नरकगामी कार्य माना गया है। अद्भूत
ब्रह्मवंश की सामाजिक व्यवस्था समाज के बड़े गांवो तथा बड़े समूह एवं ताकतवर
लोगों ने बिगाड़ी है और आज भी गोत्र-प्रवर अव्यवस्था अनवरत जारी है और इस
संगोत्र विवाह सम्बन्धों पर सामाजिक पर्दा डालने के लिये स्वयं की
गोत्र-जाति व गांवों को सांसण का आडम्बर देकर ब्रह्म ऋषियों के नाम से
गौत्र-प्रवर संस्कारों को नेस्तानबूद किया है जिससे समाज का एक बड़ा वर्ग
जिसने संगोत्र विवाह से स्वंय का एक बड़ा समूह तैयार कर स्वयं को श्रेष्ठ
प्रचारित कर रहे हैं। वही ब्रह्म ऋषि अंगीरा-वशिष्ठ आदि अन्य ऋषि गोत्र
प्रधान तथा छोटे मध्य समाज बन्धुओं ने अपने गोत्र-प्रवर की रक्षा कर स्वंय
को शुद्ध बनाए रखा जिनके प्रवर को श्रेष्ठ मान्यता आज भी प्राप्त है।
शास्त्रों का स्पष्ट मत है कि अपनी उम्र से अधिक उम्र की कन्या से
विवाह करना आर्य शास्त्र में निषिद्ध है। गोत्र और प्रवर का सम्बन्ध इस
कल्प के प्रारम्भ से ही माना गया है और अपने गोत्र और प्रवर से सम्बन्ध
करना माता से विवाह करने के समान समझा गया है। जन्म से जाति मानना, अपनी
जाति की कन्या से विवाह करना और रजो दर्शन से पहले विवाह सम्बन्ध करना आर्य
विवाह के लक्षण हैं। कामज विवाह अन्य जाति की स्त्रियों के साथ दूसरे
युगों में हो सकता था किन्तु वह अनुलोम विवाह हो सकता था, प्रतिलोम नहीं।
अपने से निम्न जाति की स्त्री से विवाह करना अनुलोम और उच्च जाति की स्त्री
से विवाह करना प्रतिलोम कहलाता हैं।
प्रतिलोम नरक का कारण होता है और उसकी सन्तति पतित समझी जाती है। अनुलोम सन्तति माता की जाति की समझी जाती है।
ब्राह्मण यदि शुद्रा से विवाह करें तो उसकी सन्तति शुद्र ही मानी
जायगी। पृथ्वी की अन्य मनुष्य जातियाँ, जिनमें रजोवीर्य-शुद्धि और वर्ण
धर्म की श्रृंखला नहीं है, पतित हो गई और काल के गाल में पहुँच गई। स्मृति
शास्त्र तथा दशर्न शास्त्र एकमत होकर यह सिद्ध करते हैं कि इन्हीं सब मौलिक
कारणों से आर्य जाति सृष्टि के आरम्भ काल से अब तक अपने स्वरूप में जीवित
है। प्राचीन इतिहास और आधुनिक इतिहास हाथ उठाकर इसकी साक्षी दे रहे हैं।
फिर हम बड़ी क्रुरता के साथ हमारी समाजिक संस्कृति तथा हमारे गोत्र-प्रवर
अस्तित्व को समूल नष्ट कर अद्भूत ब्रह्मवंश को काल के ग्रास में क्यों
पहुँचा रहे है
जिस समाज, मनुष्य व जाति में वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं,
गोत्र-प्रवर की सुव्यवस्था का गम्भीर विचार नहीं किया जाता उस जाति पर देव,
शक्ति, प्रकृति, आर्यमां आदि कुल पितरो की कृपा नहीं रहती तथा ऐसी
जाति-मनुष्य वर्ण संकर, पथ भ्रष्ट, शास्त्र व धर्म विरोधी तथा अपनी कुल
मर्यादा को कलंकीत करने वाले होते है। इसकी व्याख्या हमारे वेदों में वैदिक
कल्पसूत्रों में तथा स्मृति और पुराणों में गोत्र-प्रवर की हमारे धर्म
प्रवर्तक ब्रह्म महाऋषियों की विस्तृत चर्चा है।
ब्रह्मवंश व आर्य-संस्कृति में गोत्र और प्रवर का विचार रखना सर्वोपरि
माना गया है। सनातन धर्मी आर्य जाति की सुरक्षा के लिये चार बड़े-बड़े दुर्ग
हैं।
प्रथम:- गोत्र और प्रवर जिसके द्वारा समाज अपनी पवित्र कुल परम्परा पर
स्थिर एवं लक्षित रहता है।
द्वितीय:- रजोवीर्य शुद्धि मूल वर्ण व्यवस्था
जिसमें जन्म से जाति मानने की दृढ़ आज्ञा है और तप, स्वाध्याय निरन्तर
ब्राह्मण ब्रह्मवंश जाति के नेतृत्व में संचालित होने की व्यवस्था है।
तृतीय:- आश्रम धर्म की व्यवस्था है जिसमें आर्य सनातन-ब्रह्मवंश
सुव्यवस्थित रूप से धर्म मूलक प्रवृति के मार्ग पर चलती हुई भी निवृति की
पराकाष्ठा पर पहूंच जाती है।
चतुर्थ:- वर्ग सतित्व मूलक नारी धर्म की
सहायता से आर्य जाति तथा अद्भूत ब्रह्मवंश कुल परम्परा की महान पवित्रता
है।
इन चार अटल दुर्गों में शास्त्रार्थ गोत्र एवं प्रवर पर सदा लक्ष्य
रखने वाला दुर्ग कितना महान और परम आवश्यक है जिसको बताना व समझना तथा
मानना समाज के हित में अति आवश्यक है।
परन्तु समाज के सम्पन्न, ताकतवर, आड़म्बर युक्त बड़े समूह का निर्माण कर
लोगों ने स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अपने स्वार्थ के लिए अज्ञानता वश
गोत्र-प्रवर महिमा को भूला दिया और इस आधुनिक युग में वो विपथगामी होकर
अपना प्रवर ही भूल गये और उनके अन्तकरण में इतना अज्ञान व्याप्त हो गया कि
वो अब संगोत्र-विवाह सामाजिक, शास्त्र विरोधी मान्यता एवं कानून द्वारा
चलाना चाहते है।
सृष्टि सृजन से अब तक आर्य जाति- ब्रह्मवंश अपने ऋषि गौत्र रूप
में विद्यमान है। चतुर्युगी सृष्टि एवं मनवन्तर की तो बात ही क्या-कल्पादि
और महा कल्पादि की आदि-सृष्टि के साथ-साथ गौत्र-प्रवर सम्बन्ध अटूट है,
क्योंकि सृष्टि सृजन एवं अद्भूत ब्रह्मवंश की उत्पति सृष्टिकर्ता जगत पिता
ब्रह्माजी के दस मानस पुत्रों द्वारा रची गई है।
ब्रह्मऋषि पुत्रों की उत्पति ब्रह्माजी के मुख से महा ऋषि अंगीरा, नेत्र
से अमी, प्राण से वशिष्ठ के साथ, मन से मरिची, कानों से पुलस्त्य, नाभि से
पुलह, हाथ से ऋतु, अंगूठे से पचेता, त्वचा से भृगु और गोद से नारद जैसे दस
महा तेजस्वी महा ऋषियों को ब्रह्मा ने उत्पन्न किया और इन्हीं ऋषियों के
पुत्र के रूप में उन्हीं से सप्त ऋषियों की उत्पति हुई जो शोक्रत, गौतम,
पराशर, भारद्वाज, उदालिक, यमदग्नि, विश्वामित्र जैसे परविख्यात तेजस्वी ऋषि
उत्पन्न हुए। जिन ऋषियों से ही गौत्र व उनके पवित्र चरित्र से श्रेष्ठ तथा
सुसंस्कारित वंश विस्तार से प्रवर का सम्बन्ध चला हैं तथा ब्रह्म वंश की
118 गौत्र सहित सैंकड़ो ब्राह्मण एवं आर्य जाति के गौत्र-प्रवर का निर्माण
हुआ है।
गोत्र-प्रवर के विज्ञान की महिमा हैं कि हिन्दु जाति तब से अब तक जीवित
हैं। धर्म, शास्त्र, ग्रन्थ, वेद-पुराण, देव शक्ति जगत पर विश्वास करने
वाली वर्णाश्रम व्यवस्था अपनी वंश-कुल-मर्यादा की पवित्रता की रक्षा
गौत्र-प्रवर से कर सनातन धर्मी लोगों ने अपने अस्तित्व की रक्षा अब तक की
हैं।
आजकल ब्रह्मवंश ब्राह्मण्ड राजपुरोहित जाति में अनेक प्रकार के
पतन के लक्षण दिखाई देते हैं उसका मुख्य कारण यह है कि ब्रह्मवंश समाज
गौत्र-प्रवर की महिमा भूल गई हैं और जो लोग जाति गौत्र प्रवर की महिमा
जानते है और शास्त्रार्थ कर्म को फलित करते है उनमें आज भी ब्रह्म तेज
दिखाई देता हैं। शास्त्र आज्ञा के विरूद्ध चलने का धर्म शास्त्र निषेध करते
हैं।
ब्रह्मवंश, ब्राह्मण, आर्य जाति में धनाधीपति, सांसण-जागीर-सोना नविश,
बड़ी जात, बड़े गांव या विराट परिवार तथा शक्तिशाली व्यवस्था से श्रेष्ठ नहीं
माना गया है और ना ही क्षत्रियों के साथ रहने से या दान में मिले गांव या
जमीन के टूकड़े से श्रेष्ठ नहीं माना गया हैं बल्कि श्रेष्ठता उसकी
गोत्र-प्रवर की शृद्धता से है, उसकी कुल परम्परा से है। जिसका प्रवर (खून)
शुद्ध है वो श्रेष्ठ है तथा गोत्र-प्रवर की शुद्धता का मत है कि कोई भी
जाति अथवा मनुष्य अपनी वंश बेल को आगे बढ़ाने हेतु अपने माता-पिता की गोत्र
से बाहर विवाह सम्बन्ध स्थापित कर सन्तान उत्पन्न कर अपनी वंश वृद्धि करें
तो उसका प्रवर शुद्ध तथा श्रेष्ठ है और यदि अपनी संगोत्र में विवाह करें,
अपनी माता की संगोत्र प्रवर में विवाह करें तथा अपनी माता की गोत्र की
पुत्र वधु-पोत्र वधु लाए तथा अपनी कन्या का विवाह माता की संगोत्र में करें
तो गोत्र व प्रवर समूल नष्ट है तथा शास्त्र व धर्म विरूद्ध निकृष्ट कृत्य
माना गया है ऐसे विवाह बहन को भाई की भार्या बनाने के समान है, ऐसा करने व
कराने वाले नरकगामी होते है। संगोत्र विवाह मॉ को तथा बहन को पत्नी बनाने
के समान माना गया है। इससे वंश प्रवर समाप्त हो जाता है, कुल कलंकित तथा
वर्णशंकर श्रेणी में निम्न स्तर माना गया हैं जिसे धर्म निति, शास्त्रो,
वेद-पुराणों में निषिध अधर्म युक्त नरकगामी कार्य माना गया है। अद्भूत
ब्रह्मवंश की सामाजिक व्यवस्था समाज के बड़े गांवो तथा बड़े समूह एवं ताकतवर
लोगों ने बिगाड़ी है और आज भी गोत्र-प्रवर अव्यवस्था अनवरत जारी है और इस
संगोत्र विवाह सम्बन्धों पर सामाजिक पर्दा डालने के लिये स्वयं की
गोत्र-जाति व गांवों को सांसण का आडम्बर देकर ब्रह्म ऋषियों के नाम से
गौत्र-प्रवर संस्कारों को नेस्तानबूद किया है जिससे समाज का एक बड़ा वर्ग
जिसने संगोत्र विवाह से स्वंय का एक बड़ा समूह तैयार कर स्वयं को श्रेष्ठ
प्रचारित कर रहे हैं। वही ब्रह्म ऋषि अंगीरा-वशिष्ठ आदि अन्य ऋषि गोत्र
प्रधान तथा छोटे मध्य समाज बन्धुओं ने अपने गोत्र-प्रवर की रक्षा कर स्वंय
को शुद्ध बनाए रखा जिनके प्रवर को श्रेष्ठ मान्यता आज भी प्राप्त है।
शास्त्रों का स्पष्ट मत है कि अपनी उम्र से अधिक उम्र की कन्या से
विवाह करना आर्य शास्त्र में निषिद्ध है। गोत्र और प्रवर का सम्बन्ध इस
कल्प के प्रारम्भ से ही माना गया है और अपने गोत्र और प्रवर से सम्बन्ध
करना माता से विवाह करने के समान समझा गया है। जन्म से जाति मानना, अपनी
जाति की कन्या से विवाह करना और रजो दर्शन से पहले विवाह सम्बन्ध करना आर्य
विवाह के लक्षण हैं। कामज विवाह अन्य जाति की स्त्रियों के साथ दूसरे
युगों में हो सकता था किन्तु वह अनुलोम विवाह हो सकता था, प्रतिलोम नहीं।
अपने से निम्न जाति की स्त्री से विवाह करना अनुलोम और उच्च जाति की स्त्री
से विवाह करना प्रतिलोम कहलाता हैं।
प्रतिलोम नरक का कारण होता है और उसकी सन्तति पतित समझी जाती है। अनुलोम सन्तति माता की जाति की समझी जाती है।
ब्राह्मण यदि शुद्रा से विवाह करें तो उसकी सन्तति शुद्र ही मानी
जायगी। पृथ्वी की अन्य मनुष्य जातियाँ, जिनमें रजोवीर्य-शुद्धि और वर्ण
धर्म की श्रृंखला नहीं है, पतित हो गई और काल के गाल में पहुँच गई। स्मृति
शास्त्र तथा दशर्न शास्त्र एकमत होकर यह सिद्ध करते हैं कि इन्हीं सब मौलिक
कारणों से आर्य जाति सृष्टि के आरम्भ काल से अब तक अपने स्वरूप में जीवित
है। प्राचीन इतिहास और आधुनिक इतिहास हाथ उठाकर इसकी साक्षी दे रहे हैं।
फिर हम बड़ी क्रुरता के साथ हमारी समाजिक संस्कृति तथा हमारे गोत्र-प्रवर
अस्तित्व को समूल नष्ट कर अद्भूत ब्रह्मवंश को काल के ग्रास में क्यों
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