मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

संस्कृत के सर्वसाधारण द्वारा प्रयोग को प्रतिबंधित किया जाना चाहिये क्युंकि

                                            ॐ श्री महागणेशाय नमः

    संस्कृत को सभी साधारण मनुष्यो द्वारा प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिये क्युंकि इसके भी कारण है । आप आज अक्सर देखा करते होंगे कि कईयों स्कूलो मे योग शिविरो मे और पाखण्ड़ी ज्योतिषियों व नकली व भ्रष्ट हो चुके लोग द्वारा समानता व सबके समान अधिकार के नाम पर आज संस्कृत का प्रयोग पुरी मुर्खता के साथ किया जाता है बड़े-बड़े महान संत पैदा हो गये हैं और वे अपने अनुयाई बनाने के लिये सारे गलत काम किया करते हैं । अब आपको मेरा ही देखा हुआ एक उदाहरण बताता हुं हमारे ही घर से थोड़ी दूर एक परिवार रहता है पहले तो उस परिवार का व्यवसाय देखिये कि वो नाम के लिये गाय-बैल आदि खरीदने-बेचने का कार्य करता है परन्तु इसके आड़ मे वह गायो को कसाइयो को बेच दिया करता है यही उसका असली व्यव्साय है अब उसी परिवार का बच्चा स्कूल जाता है जंहा उसे गयात्री मन्त्र बुलाया जाता है चलो स्कूल मे बुलाया जाता है यह तो ठीक है परन्तु अब वही मन्त्र वह कभी भी कंही भी बेहूदे तरीके से चिल्लाता रहता है एक दो बार तो उसे पाखाने मे भी बोलते हुये सुना है यार यह सब तो बहुत ही गलत है । और एक बात हिन्दुओ मे जो चौथा वर्ण है उनमे से लगभग सभी कसाइयो के यंहा जाकर गौ मान्स लाकर खाते हैं अब आप खुद ही सोचिये कि क्या यह लोग मन्त्रो के विषय मे जरा भी जानने के योग्य हैं  इसके अलावा भी और दुसरे कारण है जिनके अनुसार संस्कृत को सामन्य मनुष्यों द्वारा उच्चारित करने या जानने को भी प्रतिबंधित किया जाना जरूरी है नीचे देखिये-

(१). संस्कृत* के उच्चारण से होते है प्राणायाण- संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। और नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि। अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा। कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है । परन्तु यदि संस्कृत से प्राणायाम सिद्ध होता है तब तो संस्कृत का प्रयोग करते समय प्राणायाम से संबंधित नियमो का भी पालन करना जरूरी हो जाता है जिसका कुछ नियम हैं-
(अ). शान्त स्थान का होना
(ब). धूल रहित स्थान होना
(स). गन्दगी रहित होना
(द). बदबू न होना
(ई). हवा मे नमी न होना
(फ़) हवा मे गर्मी न होना
(ग) सुनसाम स्थान न होना आदि इस तरह अनेक नियम है जिनका प्राणायाम के समय पालन करना जरूरी है इसके विपरीत प्राणायाम व संस्कृत दोनो का प्रयोग या अभ्यास करने पर आयू क्षीण होने के साथ-साथ शरीर रोगी भी हो जाता है इसीलिये बाबा रामदेव जैसे लोगो द्वारा सिर्फ़ पैसे के लिये कंही भी प्राणायाम व आसन कराये जाने का मै पुर्ण विरोधी हुं और उन सम्प्रदायो का भी जो किसी को भी मन्त्रादि के उच्चारण का अधिकार दे देते हैं जिनमे गायत्री परिवार , आर्य समाज ,लालची ज्योतिषी , समानता व अधिकार के नाम पर मौत एके कुये मे लोगो को ढकेलने वाले मुर्ख व नाम के समाजसेवी । और वे मुर्ख मनुष्य जो आज स्वयं को महान समझकर खुद ही बिना कुछ जाने संस्कृत के मन्त्रो का प्रयोग करते हैं इसी तरह सुनने मे आया है कि विदेशो मे भी संस्कृत काप्रयोग किया जाने लगा है और उनके द्वारा यह कहा जाता है कि सम्स्कृत के उच्चारण से मनुष्य बुद्धीमान बनते हैं परन्तु अधिकतर विदेशो मे या तो हवा मे बहुत नमी होती है या बहुत गर्मी या फ़िर धूल आदि भी होती है कुछ मुर्ख विदेशी तो एयर कंड़ीशन मे बैठकर संस्कृत का प्रयोग करते हैं

(२).संस्कृत के विकृत उच्चारण से उपजी शब्दो की प्रतिध्वनियां -संस्कृत के विकृत उच्चारण से उपजी शब्दो की प्रतिध्वनियां बहुत समय तक वायुमण्डल मे रहने के कारण अनेको बार सभी स्थानो पर प्रभाव डालती रहती है जिससे उच्चारण करने वाला तो प्रभावित्र होता ही है साथ ही आसपास के लोगों को भी इसका दुष्प्रभाव झेलना होता है

(३).तन-मन की शुद्ध्ता का जरूरी होना- आज जिन्हे गायत्री परिवारों , अनार्य समाजियों ,पाखण्डी बाबाओ ,गुरुओं व धूर्त व पैसे के लालची लोगों व ज्योतिषियों द्वारा मन्त्रो आदि का अनाधिकृत ज्ञान दिया जा रहा है वे लगभग सभी मांसाहारी है और अधिकांश गंदगी से रहा करते हैं कुछ अपवाद हो सकते है परन्तु अपवादो की मान्यता नही होती इनमे से कईयो तो गौ मांस का भक्षण भी करते हैं कईयो मल-मुत्र का त्याग करने के पश्चात हाथ धोना भी जरूरी नही समझते यदि मन्दिर जाने वाले सभी लोगो पर नजर रखी जाय तो कईयों तो एसे होंगे जो मुत्र त्यागने के बाद सीधे मन्दिर मे घुस जाते हैं और एसी गन्दगी एक वर्ग विषेश जरूर करता है । और इन जैसे सभी लोगोंको अनार्य वेद पाठ व हवन आदि कराना भी सिखा रहे हैं जिसमे स्त्रियो को एक व्यवसायिक पाठ्यक्रम के अनुसार यह सब सिखाया जा रहा है इन धूर्त अनार्यो के लिये हवन-यज्ञ आदि सिर्फ़ एक व्यव्साय है अब यही स्त्रियां महीने के उन दिनो मे भी यह सब धार्मिक अनुष्ठान कराया करेंगी क्या यह अनार्य समाजी इसे रोक सकते हैं

अब यह सब जानने के बाद आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि उक्त सभी सम्प्रदाय , गुरु व महात्मा आदि धूर्त , पाखण्डी क्या मुर्ख नहीं हैं या एसा कि द्वेश की भावना से एसा कर रहे हैं आने वाले समय मे यह सभी रोगी होकर अपनी आयू तो क्षीण करेंगे साथ ही दुसरो के लिये भी कष्ट का कारण होंगें

*संस्कृत के विषय मे अधिक जानकारी के लिये इस लिंक  http://sanskritbhasha.blogspot.com/2005/08/blog-post_19.html पर जरूर देखें इस लेख मे कुछ अन्श इस लिंक से लिये गये हैं

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