ॐ श्री महागणेशाय नमः
पुरुषो का स्त्रियो के साथ व्यवहार
पुरुषो को अंतःपुर की रक्षा के लिए व्रद्ध ,जितेंद्रिय पुरुषो को ही नियुक्त करना चाहिए । स्त्रियॉं की रक्षा न करने से वर्ण संकर उत्पन्न होते है जिनमे कई प्रकार के दोष देखे गए हैं । स्त्रियो को कभी स्वतन्त्रता न दे न उनपर विश्वास करे । किन्तु व्यवहार मे विश्वस्त के समान ही चेष्ठा दिखनी चाहिए । विषेशरूप से उसे पाकादी क्रियाओ मे ही नियुक्त करना चाहिए । स्त्री को किसी भी समय खाली नही बैठना चाहिए ।
दरिद्रता, अति रूपवान,असतजनों का संग , स्वतन्त्रता, पेयादी द्रव्यों का पान,अभक्ष्य भक्षण करना, कथा गोष्ठी आदी प्रिय लगना,काम न करना ,भिक्षुकी ,कुट्टीनी ,दाई ,नटी ,आदि दुष्ट स्त्रियो के संग उदधान ,यात्रा ,निमंत्रण,आदि मे जाना, तीर्थयात्रा अधिक करना अथवा देवता के दर्शन के लिए घूमना ,पति के साथ बहुत वियोग होना ,कठोर व्यवहार होना,पुरुषो से अत्यधिक वार्तालाप करना ,अति क्रूर अति सोम्य ,अति निडर,ईर्ष्यालु तथा क्रपण होना और किसी स्त्री के वशीभूत होना ये सब स्त्री के दोष उसके विनाश के हेतु हैं । एसी स्त्रियॉं के अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो यह उसके विनाश के भी सूचक हैं । यह पुरुषो की हही अयोग्यता है की उसके भ्रत्य बिगड़ जाते हैं । इसलिए समय के अनुसार यहथोचित रीति से ताड़न और शाशन से जिस भाति हो ,इनकी रक्षा करनी चाहिए । नारी पुरुष का आधा शरीर है ।उसके बिना धर्म-क्रियाओ की साधना नही हो सकती । इस इस कारण स्त्री का सदा आदर करना चाहिए ।उसके प्रतिकूल नही करना चाहिए ।
स्त्री के पतिव्रता होने के तीन कारण देखे जाते हैं । (1) पर-पुरुष मे विरक्ति ,(2)अपने पति मे प्रीति ,(3) अपनी रक्षा मे समर्थता ।
उत्तम स्त्री को साम तथा दान नीती से अपने अधीन रखे ।
मध्यम स्त्री को दान तथा भेद से
अधम स्त्री को भेद और दंड नीति से वशीभूत करे ।
परंतु दंड देने के अनंतर भी साम-दान आदि से उसको प्रसन्न कर ले ।
भर्ता का अहित करने वाली और व्यभिचारिणी स्त्री कालकूट विष के समान होती है । इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिए । उत्तम कुल मे उत्पन्न ,पतिव्रता,विनीत और भर्ता का हित चाहने वाली स्त्री का सदा आदर करना चाहिए । इस रीती से जो पुरुष चलता है वह त्रिवर्ग की प्राप्ति करता है । और लोक मे सुख पाता है ।
स्त्रियॉं का पुरुषो के साथ व्यवहार
पति की सम्यक आराधना करने से स्त्रियो को पति कृपा प्राप्त होती है । तथा फिर श्रेष्ठ पुत्र तथा स्वर्ग भी उसे प्राप्त हो जाता है । इसलिए पत्नी को पति की सेवा करना आवश्यक है । सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किए जाने पर ही उत्तम फल देते हैं । और विधि-निषेध का ज्ञान शास्त्रो से जाना जाता है । स्त्रियो का शास्त्र मे अधिकार नही है । और न ग्रंथो के धारण करने मे अधिकार है । इसलिए स्त्रियो के द्वारा शाशन अनर्थकारी माना जाता है । स्त्री को दूसरे से विधि-निषेध जानने की अपेक्षा रहती है । पहले तो भर्ता उसे सब धर्मो का निर्देश देता है और भर्ता के मरने के अनंतर पुत्र उसे विधवा व पतीव्रता के धर्म बतलाए ।पुत्र को बुद्धी के विकल्पो को छोड़कर अपने बड़े पुरुष जिस मार्ग पर चले हों उसी पर चलने मे उसका सब प्रकार से कल्याण है । पतिव्रता स्त्री ही ग्रहस्थ के धर्मो का मूल है । ( ब्रह्मांडपुराण अध्याय 8-9)
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