गुरुवार, 18 नवंबर 2010

शौचाचार ( शुद्ध होने की विधी )


                                                    अनंतकोटी  ब्रह्मांड नायक श्री महागणेशजी की जय 

 शौचे यत्नः सदा क़ार्यः शौचमूलो द्विजः  स्मृतः । 
शौचाचारेविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः । । ( दक्ष स्मृ . 5/2, बाधुल्स्मृ . 20 )

1. बहयाभ्यंतर शौच 

शौचाचार मे सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए ,क्योंकि ब्राह्मण,क्षत्रिय  और वेश्य का मूल शौचाचार ही है ,इसका पालन न करने से सारी क्रियाए निष्फल हो जाती हैं ।

शौच विधी - यदि खुली जगह मिले तो गाँव से नेऋत्यकोण ( दक्षिण और पश्चिम  के बीच ) की और कुछ दूर जाएँ । रात मे दूर न जाएँ । नगरवासी गृह के शौचालय मे सुविधानुसार मूत्र-पुरीष का उत्सर्ग करें । मिट्टी और जल पात्र साथ लेते जाएँ । इन्हे पवित्र जगह पर रखें । जलपात्र को हाथ मे रखना निषिद्ध है । सिर और शरीर को ढका रखें । जनेऊ को ड़ाए कान पर चड़ा लें । अच्छा तो यह है कि जनेऊ को ड़ाए हाथ से निकालकर ( कंठ मे करके ), पहले दाए कान को लपेटे ,फिर उसे सिर के ऊपर लाकर बाए कान को भी लपेट लें ( एसा करने से सिर ढकने वाला काम पूरा हो जाता है )।शौच के लिए बैठते समय सुबह,शाम और दिन मे उत्तर के ओर मुख करे तथा रात मे दक्षिण की और । यज्ञ मे काम न आने वाले तिनको से जमीन को ढक दें । इसके बाद मों होकर शौच क्रिया करें । उस समय ज़ोर से सांस न ले और थूके भी नही ।

शौच के बाद पहले मिट्टी और जल से लिंग को एक बार धोवे । बाद मे माल स्थान को मिट्टी और जल से तीन बार धोये । प्रत्येक बार मिट्टी की मात्रा हरे आवले के बराबर हो । बाद मे बाए हाथ को मिट्टी से धोकर अलग रखे , इससे कुछ स्पर्श न करे । इसके पहले आवश्यकता पड़ने पर बाए हाथ से नभई के नीचे के अंगो को छुआ जा सकता था , किन्तु अब नाही । नभई के ऊपर के स्थानो को सदा दाये हाथ से छूना चाहिए । दाहिने हाथ से ही लोटा या वस्त्र का स्पर्श करें । लाँग लगाकर ( पहले से अलग बांधकर या कपड़े मे लपेटकर ) रखी गई मिट्टी के तीन भागों मे से हाथ धोने और कुल्ला करने के  लिए नियत जगह पर आए । पश्चिम की और बैठकर मिट्टी के पहले भाग मे से बाए हाथ को 10 बार और दोनों हाथों को पँहुचे ( कलाई ) तक सात बात धोएँ । जल पत्र को तीन बार धोकर ,तीसरे भाग से पहले दाये पैर को फिट बाए पैर को तीन-तीन बार जल से धोये । इसके बाद बाई और 12 कुल्ले करें । बची हुयी मिट्टी को अच्छी तरह बहा दें  । जलपात्र को जल और मिट्टी से अच्छी तरह धोकर विष्णु का स्मरण कर , शिखा को बांधकर ,जनेऊ को उपवीत कर लें , अर्थात बाएँ कंधे पर रखकर दाये हाथ के नीचे कर लें । फिर दो बार आचमन करें ।

मूत्र शौच विधी :- केवल लघुशंका ( पेशाब) करने पर शौच की विधी भिन्न  होती है । लघुशंका के बाद यदि आगे निर्दिष्ट क्रिया न की जाए तो प्रायश्चित करना पड़ता है । अतः इसकी उपेक्षा न करें । 

  विधी-  लघुशंका के बाद एक बार लिंग मे ,तीन बार बाए हाथ मे और 2 बार दोनों हाथ मे मिट्टी लगाकर धोये । एक-एक बार पैरों मे भी मिट्टी लगाकर धोये । फिर हाथ ठीक से धोकर 4 कुल्ले करे । आचमन करे , इसके बाद बची मिट्टी को अच्छे से पानी डालकर बहा दें । स्थान साफ कर दें । शीघ्रता मे अथवा मार्गादी मे जल से लिंग प्रक्षालन कर लेने पर तथा हाथ पैर डूकर कुल्ला कर लेने पर सामान्य शुद्धी हो जाती है । पर इतना अवश्य करना चाहिए ।


परिसतिथी भेद से शौच मे भेद :-   शौच अथवा शुद्धी की प्रक्रिया परिसतिथी के भेद से बदल जाती है । स्त्री और शूद्र के लिए तथा रात मे अन्यों के लिए यह आधी रह जाती है । यात्रा मे चौथाई बरती जाती है  । रोगियों के लिए यह उनकी शक्ती पर निर्भर होती है । शौच का उपर्युक्त विधान स्वस्थ ग्रहस्थों के लिए है । ब्रह्मचारी को इससे दोगुना ,वानप्रस्थ को तींगुना  और सन्यासियों को 4 गुना करना विहित है ।

2. आभ्यंतर शौच

मनोभाव को शुद्ध रखना आभ्यंतर शौच माना जाता है । किसी के प्रति ईर्ष्या ,द्वेष,क्रोध,लोभ,मोह ,घृणा आदी का भाव न होना आभ्यंतर शौच है ।सब मे भगवान का स्मरण करके सब मे भगवान का दर्शन कर ,सब परिसतिथियों को भगवाङका वरदान समझकर ,सब मे मैत्री भाव रखे । तथा साथ ही प्रतिक्षन भगवान का स्मरण करते हुये उनकी आज्ञा समझकर शास्त्र विहित कार्य करता रहे । 

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