श्री महागणेशाय नमः
एक बीज और एक पुत्र मे कोई अंतर नही होता बल्कि एक पुत्र बीज से बेहतर होता है । बीज सिर्फ उस जैसे ही दूसरे बीज को पैदा कर सकता है जबकि पुत्र मे कई पूर्वजो के गुणो का समावेश सदा रहता है । यदि वो अच्छे संस्कारो वाला है तो उसका मूल्य और भी अधिक है यदि इसके साथ-साथ वो अछे ,वंश कुल या वर्ण का है तब उसका मूल्य और बड़ जाता है । कभी-कभी पुत्र अपने पूर्वजो के गुणो के विपरीत भी जन्म ले लेता है तब भी इसका यह अर्थ नही है की वो गुणवान पुत्र का पिता नही हो सकता । वो सिर्फ अपने पूर्वजो के अशुभ गुणो के संयोग की अधिकता के कारण ही बुरा होता है । एसी दशा मे भी वो पूर्वजो के सभी गुणो का वाहक है । पिता को हमेशा धीरज नही होता वो चाहता है की उसका पुत्र जल्द से जल्द उस जैसा या उसके पूर्वजो के समान गुणो का विकास कर ले परंतु पुत्र को समय चाहिए होता है और पिता उसको यह देना नही चाहता जिस कारण दोनों मे एक दीवार बन जाती है । पिता उस पर दबाव बनाने लगता है । जो गलत है । मैंने यह सिर्फ एसलिए लिखा है की पुत्र को पिता समझ सके और उसको पूरा मोका दे । क्योंकि पिता पुत्र रह चुका होता है है जबकि पुत्र को यह समझना बाकी है । कोई जरूरी नही की पिता के गुणो के ही समान पुत्र भी हो वो सिर्फ अपने पूर्वजो के गुणो के संयोग को सक्रिय रूप मे धरण करके जन्म लेता है और वो पूर्वजो के किन गुणो के संयोग को धरण करगा इस बात का निर्धारण उसके गर्भ मे आने से लेकर जन्म और युवा हने के समय तक के वैदिक,सामाजिक और पारिवारिक संस्कार करते हैं ।आज जिस तरह वेज्ञानिक पशुओ की या किसी बीज की ऊच्च जाती के विकास के लिए वर्षो बिता देते हैं उसी तरह हिंदुओं ने भी एक अच्छी और गुणवान हिन्दू जाती के विकास के लिए वर्ण व्यवस्था की और कई वैदिक नियम बनाए जिसका मुगलो और फिरंगियों के आने से पहले तक पूरी तरह किया जाता रहा । और हिन्दू जाती ने ज्ञान-विज्ञान और धर्म की अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया ।जिसका वेद-पुराण,योग,आयुर्वेद जैसे ग्रंथो से संबन्धित कई प्रमाण हैं ।
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