गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

हमें गर्व है श्री राम , भगवान कृष्ण , रामसेतु और हिन्दू होने पर

                                                     श्री महा गणेशाय नमः

इस तथ्य के अनेक प्रमाण हैं कि पुरातन काल में रामसेतु का प्रयोग भारत और श्रीलंका के बीच में भूमार्ग के तौर पर किया जाता था। बौद्ध धर्म के इतिहास में भी इस बात का जिक्र है कि अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उनकी पुत्री संघमित्रा व पुत्र महेंद्र इसी पुल के रास्ते आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व भारत से श्रीलंका बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए पहुंचे थे। महाकवि कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम् में राम सेतु का वर्णन नासा द्वारा दिए गए चित्रों से बिल्कुल मिलता है। महाभारत, विष्णुपुराण तथा अग्निपुराण में भी इस पुल के बारे में लिखा गया है। दक्षिण भारत तथा श्रीलंका के अत्यंत प्राचीन सिक्कों पर भी इस रामसेतु पुल के चित्र उपलब्ध हैं। प्राकृत साहित्य में 7वीं से 12वीं सदी के बीच इस रामसेतु को 'सेतुबंध' का नाम दिया गया था। रामसेतु का नाम 'एडम्स ब्रिज' सोलहवीं शताब्दी में यूरोपवासियों के भारत आने के बाद पड़ा। 16 वीं तथा 17 वीं शताब्दी में बने दो डच मानचित्र तथा एक फ्रेंच मानचित्र में एडम्स ब्रिज अर्थात रामसेतु को रामेश्वरम् तथा तलाईमन्नार के बीच क्रियात्मक भूमार्ग दर्शाया गया है। सन् 1803 के मद्रास प्रेसिडेंसी के अंग्रेजी सरकार द्वारा जारी गजट में लिखा गया है कि 15वीं शताब्दी के मध्य तक रामसेतु का प्रयोग तमिलनाडु से श्रीलंका जाने के लिए किया जाता था, परंतु बाद में एक भयंकर तूफान से इस पुल का बड़ा भाग समुद्र में डूब गया। सेतु बनाने में मानवीय प्रयास का कितना हाथ था यह तो खोजबीन का विषय है, जिसके लिए एक ऐसी अनुसंधान टीम का गठन किया जाए जिसमें पुरातत्वविद ,भूवैज्ञानिक, इकोलॉजिस्ट आदि शामिल हों। श्रीलंका सरकार डूबे हुए सेतु पर भूमार्ग बनाना चाहती है, जबकि भारत सरकार इसे विस्फोट से उड़ाकर जहाजरानी मार्ग बनाना चाहती है। इस प्रकल्प को 'सेतुसमुद्रम' का नाम दिया गया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री ने नवंबर 2002 में इस जलमग्न रामसेतु के ऊपर भूमार्ग बनाने का प्रस्ताव रखा ताकि भारत और श्रीलंका के बीच पर्यटक तथा व्यापारिक संबंध बढ़ सकें।
14 वर्ष के वनवास में श्रीराम ने जिन स्थानों की यात्रा की उनका क्रमिक विवरण अनुसंधानकारों ने अयोध्या से लेकर रामेश्वरम् तक उन स्थानों की यात्रा की, जहां वनवास की अवधि में श्रीराम गए थे और पाया कि 195 स्थानों पर आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम द्वारा वनवास के समय गमन किए गए स्थानों का विवरण मिलता है, जिनमें कई नदियों तथा सरोवरों के किनारे स्थित ऋषि आश्रमों का भी उल्लेख है। इनमें से कई स्थानों में अभी भी स्मारक स्थल है तथा स्थानीय लोग यह मानते है कि प्रभु राम वास्तव में उन जगहों पर आए थे। इनमें से कई स्थान मैंने स्वयं भी देखे है। श्रीराम के वन गमन स्थलों की इस यात्रा को पांच चरणों में बांटा जा सकता है:
प्रथम चरण-गंगा क्षेत्र : वनवास के दौरान श्रीराम, लक्ष्मण व सीता कई स्थानों पर गए, जिनमें शामिल है- तमसा नदी तल -अयोध्या से 20 किलोमीटर दूर। तत्पश्चात गोमती नदी पार करने के बाद गंगा तट पर पहुंचे और श्रृंगवेरपुर (सिंगरौर) गए, जो निषादराज गुह का राज्य था। यह इलाहाबाद से 20 किलोमीटर दूर स्थित है। फिर उन्होंने गंगा नदी पार की और भारद्वाज आश्रम पहुंचे। उसके बाद उत्तार प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर चित्रकूट पहुंचने के पहले संगम के समीप यमुना को पार किया। स्मारकों में वाल्मीकि आश्रम, माण्डव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि शामिल है। भरत मिलाप के बाद उन्होंने चित्रकूट छोड़ दिया और सतना (मध्य प्रदेश) स्थित महर्षि अत्रि आश्रम गए।
द्वितीय चरण-दंडक वन क्षेत्र : श्रीराम, लक्ष्मण व सीता ने इस क्षेत्र में घने जंगलों, नदी-नालों एवं अन्य जल समूहों के आसपास भ्रमण किया। आज भी अनेक स्थानों पर स्मारक स्थित हैं। मध्य प्रदेश में दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना में शरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों का दौरा किया।
मध्य प्रदेश एवं छत्ताीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे दस वर्षो तक कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। बाद में सुतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में वन गमन स्थलों के कई स्मारक विद्यमान है, जिनमें मांडव्य आश्रम,श्रृंगी आश्रम, राम लक्ष्मण मंदिर आदि प्रसिद्ध हैं। कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात् वे नासिक में अगस्त्य आश्रम गए- श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र अगस्त्य मुनि ने यहां भेंट किए।
तीसरा चरण-गोदावरी के साथ-साथ भ्रमण : अगस्त्य आश्रम से वे पंचवटी गए, जो नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वटवृक्षों का स्थान कहा जाता है। पंचवटी क्षेत्र में शूर्पणखा की नाक कटी तथा खर और दूषण साथ युद्ध हुआ- इनके स्मारक मौजूद है, जिनमें 'जनस्थान' भी शामिल है। मारीच वध-स्थल पर भी स्मारक अस्तित्व में है, जिनमें शामिल है मृगव्याधेश्वर और बनेश्वर। नासिक क्षेत्र सीता सरोवर, राम कुंड, त्रयम्बकेश्वर जैसे स्मृति चिह्नों से भरा पड़ा है। रावण ने सीता हरण के बाद जटायु का वध किया, जिसकी यादगार नासिक से 56 किलोमीटर दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' स्थान पर है।
चतुर्थ चरण- तुंगभद्रा व कावेरी नदियों के क्षेत्र : श्रीराम तथा लक्ष्मण सीता की खोज में तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों में अनेक स्थलों पर गए। जटायु और काबंध से मिलने के पश्चात ऋष्यमूक पर्वत पहुंचने के लिए वे दक्षिण की तरफ गए। मार्ग में पम्पासर क्षेत्र में शबरी आश्रम गए- जिसे आजकल बेलगॉव में सुलेवान कहा जाता है जो बेर के वृक्षों के लिए अभी भी प्रसिद्ध है। मलय पर्वत और चंदन के जंगलों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक की तरफ गए। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की। सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बालि का वध किया। ऋष्यमूक तथा किष्किंधा, कर्नाटक के हंपी, जिला बल्लारी में स्थित है।
पंचम चरण-समुद्र तट : मलय पर्वत, चंदनवन, कई नदियों और झरनों तथा वन वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। पहले श्रीराम सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया गया परंतु सर्वेक्षण के बाद इस स्थान को पुल बनाने के लिए उचित नहीं समझा गया। इसीलिए सारी सेना को रामेश्वरम् ले जाया गया। वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने समुद्र में वह मार्ग ढूंढ़ निकाला जिसके ऊपर से लंका पहुंचने के लिए पुल का निर्माण किया जा सकता था। छेदुकराई तथा रामेश्वरम् के इर्दगिर्द अनेक स्मृति चिह्न अभी भी मौजूद है। धनुषकोटि, रामेश्वरम् से नाविक पारदर्शी स्थल वाली नौकाओं पर यात्रियों को सेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते है किंतु इसे 'एडम्स ब्रिज' कहना अधिक धर्मनिरपेक्ष माना जाता है।
श्रीराम के पूर्वज : इतिहासकारों ने यह सिद्ध किया है कि श्रीराम सूर्यवंशी थे और वे इस वंश के 64 वें राजा थे। पूर्व 63 राजाओं के नाम तथा विवरण 'अयोध्या का इतिहास' नामक पुस्तक में लिखे हुए है। यह पुस्तक लगभग 80 साल पूर्व राय बहादुर सीताराम जी द्वारा लिखी गई है। लुजियाना यूनिवर्सिटी, अमेरिका के प्रो.सुभाष काक ने भी अपनी पुस्तक 'द एस्ट्रोनोमिकल कोड ऑफ ऋग्वेद' में श्रीराम के उन 63 पूर्वजों का वर्णन किया है, जिन्होंने अयोध्या पर राज्य किया।
वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि कैकेय प्रदेश से अयोध्या आते समय भरत ने सरस्वती नदी को पार किया। कई पाश्चात्य लेखकों ने बताया कि सरस्वती नदी काल्पनिक थी। परंतु पुरातात्विक, भूतात्विक तथा खगोलीय अनुसंधानों से पता चला है कि सरस्वती नदी वास्तव में हिमालय के रुपिन-सुपिन ग्लेशियरों से निकल कर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा गुजरात से होती हुई अरब सागर तक बहती थी और आज से लगभग 4500 वर्ष पहले सूख गई। कश्मीर से कन्या कुमारी तथा बंगाल से गुजरात तक, सभी जगह लोगों का यह अटूट विश्वास है कि मर्यादा पुरुषोत्ताम श्रीराम ने ही सेतु का निर्माण कराया था। हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तार पूर्व राज्यों में बसी अनुसूचित जनजातियों/ वनवासी जातियों के अधिकतर उत्सव श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के जीवन की घटनाओं से संबंध रखते है। उपर्युक्त तथ्य हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मजबूर करते है कि श्री सीताराम जी के जीवन से संबंधित स्थान तथा घटनाएं हमारी वास्तविक सांस्कृतिक तथा सामाजिक धरोधर है और प्रत्येक भारतीय को जाति, पंथ से ऊपर उठकर इनके बारे में गर्व अनुभव करना चाहिए। रामजी की सेना जिसने रावण को परास्त किया, उसमें मध्य और दक्षिण भारत के वनवासी जातियों तथा जनजातियों के योद्धा शामिल थे। इस प्रकार रामजी के जीवन से संबंधित सभी तथ्य और घटनाएं हम सभी भारतीयों, चाहे वे किसी भी जाति अथवा पंथ के हों, की सामूहिक धरोहर है। श्रीराम 7000 वर्ष पूर्व पैदा हुए। इसलिए श्रीराम के जीवन से संबंधित घटनाओं तथा स्थलों की खोज सर्वाधिक कठिन कार्य है क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं तथा आक्रमणों ने बहुत से प्रमाण नष्ट कर दिए है। लेकिन क्या हम इस बात से हताश होकर अपनी महान सांस्कृतिक परम्परा की खोज करना छोड़ सकते है? हम भारतीयों को गर्व अनुभव करना चाहिए कि भारतीय सभ्यता पृथ्वी पर सर्वाधिक पुरानी सभ्यता है और निश्चित रूप से 10,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। यह बड़े खेद की बात है कि स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद भी भारतीय पुरातत्वीय विभाग ने रामसेतु के बारे में खोजबीन हेतु समुद्री पुरातत्तव विज्ञान केंद्र की स्थापना नहीं की। जब कोई खोजबीन की ही नहीं गई तो इस बात का सत्यापन कैसे किया जा सकता है कि रामसेतु एक कल्पना मात्र है और इसका निर्माण हुआ ही नहीं था? यह तो सर्वविदित है कि जब इस तरह की टीम ने द्वारका के पास खोजबीन के लिए गठित की गई तो महाभारत में वर्णित द्वारका नगरी को समुद्र में डूबा पाया गया, आधुनिक द्वारका नगरी से एक किलोमीटर दूर। कार्बन डेटिंग के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया कि यह नगरी ईसा पूर्व 1443 में समुद्र में डूब गई थी। इसीलिए यह अति आवश्यक है कि एक समुद्री पुरातत्व अनुसंधान टीम का गठन किया जाए और यह टीम रामसेतु के बारे में खोजबीन करे। दूसरी तरफ यह भी आवश्यक है कि राम के युग की प्रामाणिकता के बारे में जानने के लिए भाषामूलक इतिहास को छोड़ वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों की जांच पड़ताल की जाए। विज्ञान के आधुनिक आविष्कारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि केवल भारत का ही नहीं अपितु पूरे विश्व का इतिहास नए सिरे से लिखना होगा क्योंकि विभिन्न सभ्यताएं भाषामूलक इतिहासकारों के अनुमानों से कहीं अधिक पुरानी है। इसीलिए जरूरी है कि नई हिस्ट्री काउंसिल का गठन किया जाए जिसमें किसी भी विचारधारा का कोई भी भाषामूलक इतिहासकार न हो अपितु इसके सदस्य संस्कृत तथा साहित्य के विद्वान, खगोलविद, अंतरिक्ष वैज्ञानिक, पुरातत्वविद् तथा इकोलॉजिस्ट होने चाहिए जो केवल वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर प्राचीनतम घटनाओं की प्रमाणिकता तथा तिथियों का निर्धारण करे। समाचार पत्र पत्रिकाओं, दूरदर्शन तथा अन्य चैनलों को ये बात ध्यान में रखनी होगी कि वे ऐसा वातावरण तैयार करे जिससे हमारे आधुनिक व शिक्षित युवक तथा युवतियां प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर शोध कार्य करे, नए तथ्यों को उद्घाटित करे तथा निर्भय होकर गर्व के साथ अपने शोध कार्य के परिणामों को विश्व के समक्ष रखें।
सरोज बाला
(लेखिका राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी की महानिदेशक हैं )

जय जय श्री राम

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