गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

राजा शालीवाहन तथा ईशामसीह की कथा ( ब्रह्मांड पुराण प्रतिसर्ग पर्व तृतीय खंड )

                                                 ॐ श्री महागणेशाय  नमः                         

सुतजी बोले :- मुनियो ! विक्रमादित्य के स्वर्गलोक चले जाने के बाद बहुत से राजा हुए । पूर्व मे कपिल स्थान से पश्चिम मे सिंधु नदी तक उत्तर मे बद्री क्षेत्र से दक्षिण मे सेतुबंध तक की सीमा वाले भारत वर्ष मे उस समय 18 राज्य या प्रदेश थे । इन राज्यो पर अलग-अलग राजाओ का राज्य था । वंहा की भाषाए भिन्न-भिन्न रही । और समय-समय पर भिन्न धर्म प्रचारक हुए । 100 वर्ष व्यतीत हो जाने पर धर्म का विनाश सुनकर । शक आदि विदेशी राजा अनेक लोगो के साथ सिंधु नदी को पार कर आर्य देश मे आए । कुछ लोग हिमालय के हिम मार्ग से यंहा आए । उन्होने आर्यों को जीतकर उनका धन लूट लिया । और अपने देश लौट गए । इसी समय विक्रमादित्य पोत्र राजा शालीवाहन पिता के सिंहासन पर आसीन हुआ । उसने शक चीन आदि देशो की सेना पर विजय पाई । वाह्यीक ,कामरूप ,रोम , तथा खुर देश मे उत्पन्न हुए दुष्टो को पकड़कर उन्हे दंड दिया और उनका सारा कोश छीन लिया । उसने मलेच्छ्यो ( मुकुल-मुगल और ईसाई ) और आर्यों की अलग-अलग देश मर्यादा स्थापित की । सिंधु-प्रदेश को आर्यों के लिए उत्तम स्थान निर्धारित किया । और मलेच्छ्यो के लिए सिंधु के उस पार का स्थान निर्धारित किया ।

एक समय की बात है वह शकाधीश शालीवाहन हिमशिखर पर गया । उसने हूण देश के मध्य स्थित पर्वत पर एक सुंदर पुरुष को देखा । उसका शरीर गोरा था । और वह श्वेत वस्त्र धरण किए हुए था । उस व्यक्ति को देखकर शकराज ने प्रसन्नता से पूछा - ' आप कौन हैं ? ' उसने कहा - ' में ईश पुत्र हूँ ' और कुमारी के गर्भ से उत्पन्न हुआ हूँ । में मलेच्छय धर्म का प्रचारक और सत्य व्रत मे स्थित हूँ । ' राजा ने पूछा - ' आपका कौनसा धर्म है ? '

ईशपुत्र ने कहा - ' महाराज ! सत्य का विनाश हो जाने पर मर्यादा रहित मलेच्छय प्रदेश मे में मसीहा बनकर आया और दस्युओं के मध्य भयंकर ईशामसी नाम से एक कन्या उत्पन्न हुई । उसी को मलेच्छ्यो से प्राप्तकर मैंने मसीहत्व प्राप्त किया । मेंने मलेच्छ्यो मे जिस धर्म की स्थापना की उसे सुनिए - सबसे पहले मानस और देहिक मल को निकालकर ( अपनी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण कर ) शरीर को पूर्णतः निर्मल कर लेना चाहिए ।   फिर ईष्ट देवता का जप करना चाहिए । सत्य वाणी बोलना चाहिए , न्याय से चलना चाहिए , और मन को एकाग्र कर सूर्य मण्डल मे स्थित परमात्मा की पुजा करनी चाहिए । क्यूंकी ईश्वर और सूर्य मे समानता है । परमात्मा भी अचल है सूर्य भी अचल है । सूर्य अनित्य भूतो के सार का चारो और से आकर्षण करते हैं । हे भूपाल ! एसे कृत्य से वो मसीहा विलीन हो गया । पर मेरे हृदय मे नित्य विशुद्ध कल्याणकारिणी ईश मूर्ती प्राप्त हुई । इसलिए मेरा नाम ईशामसीह प्रतिष्ठित हुआ ।

यह सुनकर शालीवाहन ने उस मलेच्छय पूज्य को प्रणाम किया और उसे दारुण मलेच्छय प्रदेश मे प्रतिष्ठित किया । तथा अपने राज्य मे आकर उस राजा ने अश्वमेघ यज्ञ किया और साठ वर्ष तक राज्य कर स्वर्गलोक चला गया ।

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