ॐ श्री महा गणेशाय नमः
ऋषियों की दृष्टी मे ' सोम ' एक मूलभूत पोषक तत्व है । उसे कभी सोमलता के रूप मे , कभी सूक्ष्म प्रवाह के रूप मे तथा कभी व्यक्तित्व सम्पन्न देवशक्ति के रूप मे अनुभव करते हुये विभिन्न मंत्र कहे गए हैं । उन्हे , उन्ही संदर्भ मे देखने समझने का प्रयास किया जाय , तो वेदो की गरिमा प्रकट होकर आशीर्वाद से मंडित करने लगती है ।
' सोम ' की उक्त तीनों अवधारणाओ को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण देना सही होगा ---
' सोमलता ' की उत्पत्ती पर्वतीय उच्च स्थानो ( हिमाच्छादित उपत्यीकाओ ) मे मानी गई है , जिसका दिव्य-मधुर रस अतिशय आनंद प्रदान करने मे सक्षम है - ' असाव्यं शुर्मदायाप्सु दक्षों गिरिशठा .... । ( साम 473 )
यह सोमरस हरिताभ वर्ण का होता है , बल वीर्य बड़ाने वाला है , देवता भी बड़ी रुची से इसका पान करते हैं - ' पवस्व दक्षसाधनों देवेभ्यः पीते हेर । मरुदभ्यों वायवे मदः । ( साम 474 )
शारीरिक बलवीर्य बड़ाने के साथ यह सोमरस बुद्धी , मानसिक क्षमता बड़ाने वाला भी है - ' प्रसोमसो विपश्चितों$ति नयंत उर्मयः । ( साम 478 )
इस सोमरस के पदार्थगत गुण इस प्रकार बताए गए हैं --
जागृविः - जागृत रहने वाला ( साम 1357 )
शुक्रः - वीर्य या तेज बड़ाने वाला ( साम 1357 )
दक्ष साधन - दक्षता बड़ाने वाला ( साम 1388 )
प्रियः - सबको प्रिय ( साम 1395 )
सहवान - शत्रुओ को हरने की शक्ति से युक्त ( साम 1409 )
वृषा - बलवान ( साम 1419 )
सुमेधा - उत्तम मेधा शक्ति प्रदान करने वाला ( साम 1420 )
तेजिष्ठाः - तेजस्वी ( साम 1424 )
मनसः पतिः - मन पर नियंत्रण रखने वाला इत्यादी ।
जंहा ' सोम ' को एक लता के रूप मे कहा गया है , वंही उसे एक सूक्ष्म शक्ति प्रवाह भी कहा गया है । परमात्म शक्तियों का एसा प्रवाह , जो सर्वत्र संचरित होकर सृष्टी संतुलन विकास आदी मे अपना योगदान देता है । , क्रांतदर्शी ऋषियों ने सुए ' सोम ' संज्ञा से अभिहित किया है -
' उच्चा ते जात मंध्यसो दिवि सदभूष्या ददे । उप्रं शर्म महिश्रवः ॥ "
अर्थात हे सोमदेव ! आपके पोशाक रस का जन्म सर्वोच्च द्यूलोक मे हुआ है । आपके उस द्यूलोक मे होने वाले महिमाशाली सुखद प्रभाव और पोषण शक्ति , भूमि पर रहने वाले प्राण प्राप्त करते हैं । ( साम 467 )
' पवित्र तथा पवित्र करने वाला वह ' दिव्य सोम ' द्यूलोक मे दिखाई पड़ने वाले व्यापक वेश्वानर के तेज को उसी तरह उत्पन्न किया था ' - पावमानो अजीजनद्दिवश्चित्रं न तन्यतुम। ज्योतिवेश्वानरं वृहत ॥ ( साम 484 )
एक स्थान पर ' सोम ' को ' महान जल प्रवाहों मे मिला हुआ " कहा गया है । ' परि प्रासिष्यदत्कविः
सिंधों-रूर्मावधि श्रितः....... ( साम 486 )
' सोम ' का तीसरा रूप और भी प्रभावशाली है । त्रिकालदर्शी मंत्रदृष्टा ऋषियों ने अनुभव किया की सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की संरचना , विकास और विलय की प्रक्रिया का नियामक वह ' सोम ' ही है । एक स्थान पर उसे ' सूर्य को प्रकाशित करने वाला ' कहा गया है - ' यथा सूर्यमरोचयः ' ( साम 493 )
वः रभाव सम्पन्न ' सोम ' महान जल-प्रवाहों को अवरुद्ध कर देने वाले ' वृत्र ' को मारने के लिए ' इन्द्र ' को प्रेरित-उत्साहित करने वाला है । - ' स पवस्व य आविथेन्द्रां वृत्ताय हन्तवे ।.......( साम 494 )
उक्त दृष्टियाँ मंत्रदृष्टा ऋषियों द्वारा अनेक बार उपलब्ध होती हैं , किन्तु अधुनातन पदार्थ विज्ञान , ने ' सोम ' को किस रूप मे प्रतिपादित किया है । , इसका निर्देशन ' वेदो मे सोम ' नामक ग्रंथ मे देखा जा सकता है । विद्वान लेखक ने इस ग्रंथ के दूसरे अध्याय मे ' सोम ' को वायु और इन्द्र से उत्पन्न हुआ मानकर तीनों को परमाणु ' त्रित ' की संज्ञा दी है , जिसे एटामिक पार्टिकल बताते हुए , उसी से सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ती कही है ।
स्वाध्याय मण्डल पारडी से प्रकाशित भाष्य के अंतर्गत श्री सातवलेकरजी नामदेव ने इन्द्र के 100 , अग्नि के 75 , तथा सोम के 34 गुणो की सूची दी है । स्पष्ट है कि ऋषी इन दिव्य शक्तियों को उन सभी संदर्भों मे क्रियाशील देखते हैं । इसलिये किसी सीमित संदर्भ या पुवाग्रह को आगे रखकर उनके द्वारा किए गए विवरण का मर्म नही जाना जा सकता ।
वेदों मे जलते हुये अंगारो पर दी जाने वाली अन्न और दूसरी वस्तुओं की आहूती से धुए और दूसरे सूक्ष्म रूपो मे देवताओ को पोषण प्रदान करने वाले तत्व भी ' सोम ' कहलाते हैं । ' सोम ' से सीधा अर्थ यही समझ आता है , कि किसी भी रूप मे पोषण प्रदान करने वाला सूक्ष्म तत्व ' सोम ' है , फिर वो ध्वनि तरंगो के रूप मे हो या प्रकाश किरणों के रूप मे या किसी भी और दूसरे रूप मे । ब्रह्मांड की सूक्ष्मता और विस्तार की अनंतता के कारण
' सोम ' की भी सूक्ष्मता और विस्तार अनंत हैं
ऋषियों की दृष्टी मे ' सोम ' एक मूलभूत पोषक तत्व है । उसे कभी सोमलता के रूप मे , कभी सूक्ष्म प्रवाह के रूप मे तथा कभी व्यक्तित्व सम्पन्न देवशक्ति के रूप मे अनुभव करते हुये विभिन्न मंत्र कहे गए हैं । उन्हे , उन्ही संदर्भ मे देखने समझने का प्रयास किया जाय , तो वेदो की गरिमा प्रकट होकर आशीर्वाद से मंडित करने लगती है ।
' सोम ' की उक्त तीनों अवधारणाओ को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण देना सही होगा ---
' सोमलता ' की उत्पत्ती पर्वतीय उच्च स्थानो ( हिमाच्छादित उपत्यीकाओ ) मे मानी गई है , जिसका दिव्य-मधुर रस अतिशय आनंद प्रदान करने मे सक्षम है - ' असाव्यं शुर्मदायाप्सु दक्षों गिरिशठा .... । ( साम 473 )
यह सोमरस हरिताभ वर्ण का होता है , बल वीर्य बड़ाने वाला है , देवता भी बड़ी रुची से इसका पान करते हैं - ' पवस्व दक्षसाधनों देवेभ्यः पीते हेर । मरुदभ्यों वायवे मदः । ( साम 474 )
शारीरिक बलवीर्य बड़ाने के साथ यह सोमरस बुद्धी , मानसिक क्षमता बड़ाने वाला भी है - ' प्रसोमसो विपश्चितों$ति नयंत उर्मयः । ( साम 478 )
इस सोमरस के पदार्थगत गुण इस प्रकार बताए गए हैं --
जागृविः - जागृत रहने वाला ( साम 1357 )
शुक्रः - वीर्य या तेज बड़ाने वाला ( साम 1357 )
दक्ष साधन - दक्षता बड़ाने वाला ( साम 1388 )
प्रियः - सबको प्रिय ( साम 1395 )
सहवान - शत्रुओ को हरने की शक्ति से युक्त ( साम 1409 )
वृषा - बलवान ( साम 1419 )
सुमेधा - उत्तम मेधा शक्ति प्रदान करने वाला ( साम 1420 )
तेजिष्ठाः - तेजस्वी ( साम 1424 )
मनसः पतिः - मन पर नियंत्रण रखने वाला इत्यादी ।
जंहा ' सोम ' को एक लता के रूप मे कहा गया है , वंही उसे एक सूक्ष्म शक्ति प्रवाह भी कहा गया है । परमात्म शक्तियों का एसा प्रवाह , जो सर्वत्र संचरित होकर सृष्टी संतुलन विकास आदी मे अपना योगदान देता है । , क्रांतदर्शी ऋषियों ने सुए ' सोम ' संज्ञा से अभिहित किया है -
' उच्चा ते जात मंध्यसो दिवि सदभूष्या ददे । उप्रं शर्म महिश्रवः ॥ "
अर्थात हे सोमदेव ! आपके पोशाक रस का जन्म सर्वोच्च द्यूलोक मे हुआ है । आपके उस द्यूलोक मे होने वाले महिमाशाली सुखद प्रभाव और पोषण शक्ति , भूमि पर रहने वाले प्राण प्राप्त करते हैं । ( साम 467 )
' पवित्र तथा पवित्र करने वाला वह ' दिव्य सोम ' द्यूलोक मे दिखाई पड़ने वाले व्यापक वेश्वानर के तेज को उसी तरह उत्पन्न किया था ' - पावमानो अजीजनद्दिवश्चित्रं न तन्यतुम। ज्योतिवेश्वानरं वृहत ॥ ( साम 484 )
एक स्थान पर ' सोम ' को ' महान जल प्रवाहों मे मिला हुआ " कहा गया है । ' परि प्रासिष्यदत्कविः
सिंधों-रूर्मावधि श्रितः....... ( साम 486 )
' सोम ' का तीसरा रूप और भी प्रभावशाली है । त्रिकालदर्शी मंत्रदृष्टा ऋषियों ने अनुभव किया की सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की संरचना , विकास और विलय की प्रक्रिया का नियामक वह ' सोम ' ही है । एक स्थान पर उसे ' सूर्य को प्रकाशित करने वाला ' कहा गया है - ' यथा सूर्यमरोचयः ' ( साम 493 )
वः रभाव सम्पन्न ' सोम ' महान जल-प्रवाहों को अवरुद्ध कर देने वाले ' वृत्र ' को मारने के लिए ' इन्द्र ' को प्रेरित-उत्साहित करने वाला है । - ' स पवस्व य आविथेन्द्रां वृत्ताय हन्तवे ।.......( साम 494 )
उक्त दृष्टियाँ मंत्रदृष्टा ऋषियों द्वारा अनेक बार उपलब्ध होती हैं , किन्तु अधुनातन पदार्थ विज्ञान , ने ' सोम ' को किस रूप मे प्रतिपादित किया है । , इसका निर्देशन ' वेदो मे सोम ' नामक ग्रंथ मे देखा जा सकता है । विद्वान लेखक ने इस ग्रंथ के दूसरे अध्याय मे ' सोम ' को वायु और इन्द्र से उत्पन्न हुआ मानकर तीनों को परमाणु ' त्रित ' की संज्ञा दी है , जिसे एटामिक पार्टिकल बताते हुए , उसी से सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ती कही है ।
स्वाध्याय मण्डल पारडी से प्रकाशित भाष्य के अंतर्गत श्री सातवलेकरजी नामदेव ने इन्द्र के 100 , अग्नि के 75 , तथा सोम के 34 गुणो की सूची दी है । स्पष्ट है कि ऋषी इन दिव्य शक्तियों को उन सभी संदर्भों मे क्रियाशील देखते हैं । इसलिये किसी सीमित संदर्भ या पुवाग्रह को आगे रखकर उनके द्वारा किए गए विवरण का मर्म नही जाना जा सकता ।
वेदों मे जलते हुये अंगारो पर दी जाने वाली अन्न और दूसरी वस्तुओं की आहूती से धुए और दूसरे सूक्ष्म रूपो मे देवताओ को पोषण प्रदान करने वाले तत्व भी ' सोम ' कहलाते हैं । ' सोम ' से सीधा अर्थ यही समझ आता है , कि किसी भी रूप मे पोषण प्रदान करने वाला सूक्ष्म तत्व ' सोम ' है , फिर वो ध्वनि तरंगो के रूप मे हो या प्रकाश किरणों के रूप मे या किसी भी और दूसरे रूप मे । ब्रह्मांड की सूक्ष्मता और विस्तार की अनंतता के कारण
' सोम ' की भी सूक्ष्मता और विस्तार अनंत हैं
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