गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

ब्राह्मण को वेदज्ञान , धर्म को बनाए रखने तथा यज्ञ करने के अधिकार से वंचित किया जाएगा तब परिणाम क्या होता है,हो रहा है व होगा ?

                                                    ब्रह्म स्वरूपाय श्री महागणेशाय नमः                                                                  
                                                            अथर्ववेद 5-17  ब्रह्मजाया सूक्त
                                        [ ऋषी- मायोभू , देवता-ब्रह्मजाया , छंद-अनुष्टुप ,1-6 त्रिष्टुप ]
 यंहा ब्रह्मजाया के विषय मे कहा गया है । इस सूक्त के देवता ब्रह्मजाया हैं । जाया का सामान्य अर्थ पत्नी से लिया जाता है , इस आधार पर अनेक आचार्यो ने इस सूक्त का अर्थ ब्राह्मण की एक निष्ठ पत्नी के संदर्भ मे किया है । यह ठीक भी है ; किन्तु मंत्रोक्त गूढ़ताओ का समाधान इतने मात्र से नाही होता , मनुस्मृती 9.8 के अनुसार जाया का अर्थ है -" जिसके माध्यम से पुनः जन्म होता है । " ब्रह्म या ब्राह्मण का जन्म ब्रह्म विदध्या से होता है । ब्रह्म या ब्राह्मण ब्रह्म विद्धया के माध्यम से ही नव सृजन की प्रक्रिया आगे बढ़ाते हैं । अस्ति ब्रह्म जाया का अर्थ -ब्रह्म विदध्या करने से स्थूल व सूक्ष्म दोनों ही प्रकार के भाव सिद्ध होते हैं । उसी संदर्भ मे मंत्रर्थों को लिया जाना अधिक युक्ति संगत है ।

1 - ते$वदन् प्रथमा ब्रह्म किल्विषे$कूपारः सलिलो मातरिश्वा ।
      वीडुहरास्तप उग्रं मयोभुरापो देविः प्रथमजा ऋतस्य    ।।  अथर्व 5-17-1  
उन्होने पहले ब्रह्म-किलविष ( ब्रह्म-विकार-प्रकृती अथवा रचना )
को कहा ( व्यक्त किया ) । उग्र तप से पहले दिव्य आपः ( मूल सक्रिय तत्व ) तथा सोम प्रगट हुए । दूर स्थित (सूर्य ) जल तथा वायु तेजस से युक्त हुए ।

2 - सोमो राजा प्रथमो ब्रह्मजायां पुनः प्रायच्छद ह्यनीयमानः ।
      अन्वर्तिता वरुणो मित्र आसीदग्निहोर्ता हस्तग्रह्या निनाय ।। अथर्व 5-17-2  
संकोच का परित्याग करके राजा सोम ने पवन चरित्रवती वह ब्रहमजाया , बृहस्पति (ज्ञानी या ब्रह्मनिष्ठ पुरुष या ब्राह्मण) को प्रदान की । मित्रावरुण देवो ने इस कार्य का अनुमोदन किया । तत्पश्चात यज्ञ-संपादक अग्निदेव हाथ से पकड़कर उसे आगे लेकर आए ।

3 - हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्म जायेति चेदवोचत् ।
     न दूताय प्रहेया तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रीयस्य ।। अथर्व 5-17-3
हे ब्रहस्पतिदेव ! इसे  हाथ से स्पर्श करना उचित ही है ; क्यूंकी यह ' ब्रह्मजाया ( ब्रह्मविदध्या या ब्राह्मण की एक निष्ठ पत्नी ) है , एसा सभी देवो ने कहा । इन्हे तलाशने के लिए जो दूत भेजे गए थे उनके प्रति इंका अनासक्त्ती भाव रहा ( यह ब्रह्म निष्ठों के अलावा किसी का साथ नाही देती या फलित होती ) , जैसे शक्तिशाली नरेश का राज्य सुरक्षित रहता है , वैसे ही इनकी चरित्रनिष्ठा ( ब्राह्मण या ब्रहमनिष्ठ के प्रति ) अडिग है ।

4 - यामाहुस्तारकैषा विकेशीति दुच्छुनां ग्राम मव पद्यमानाम् ।
      सा ब्रह्मजाया वि दुनोति राष्ट्रं यत्र प्रापादि शश उल्कुषीमान्  ।। अथर्व 5-17-4 
ग्राम ( समूह विशेष ) पर गिरती गुई इस विपत्ती ,अविध्या को (जानकार लोग) विरुद्ध प्रभाव वाली 'तारका' कहते हैं । जनहा यह उल्काओ की तरह (विनाशक शक्ति युक्त) गतीशील तारका गिरी हो ( अविध्या फ़ेल गई हो ) , यह ब्रह्मजाया ( ब्रह्मविदध्या ) उस राष्ट्र मे विशेष ढंग से उलट-पुलट करके ( अविद्ध्या जनित परिपाटियों को पुनः उलटकर सीधा करके ) रख देती है ।

5 - ब्रह्मचारी चरित वेविषट् विषः स देवानां भवत्येकमङ्गम् ।
      तेन जायामन्वविंदद् बृहस्पतिः सोमेन नीतां जूहयूं १ न देवाः ।। अथर्व 5-17-5
  हे देवगण ! सर्वव्यापी विरक्त होकर ब्रह्मचर्य का निर्वाह करते हुए सर्वत्र विचरण करते हैं । वे देवताओ के साथ एकात्म होकर उनके अंग-अव्यव रूप हैं । जिस प्रकार उन्होने सर्वप्रथम सोम के हाथो ' जुहू ' को प्राप्त किया ,वैसे ही इस समय भी बृहस्पति देव ने इसे प्राप्त किया ।
[ब्रह्मलीन ( ध्यान की सर्वोच्च दशा ) दशा मे बृहस्पति देव दिव्य वाणी या यज्ञीय प्रक्रिया को छोड़कर देवो के साथ एक रूप हो जाते हैं । देवता उन्हे पुनः ज्ञान-विस्तार व यज्ञ प्रक्रिया संचालन के लिए जुहू से युक्त करते हैं । ]


6 - देवा वा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्त ऋषयस्तप्सा ये निषेदुः ।
      भीमा जाया ब्राह्मणस्याप्नीता दुर्धा दधाति फ़र्मे व्योमन ।। अथर्व 5-17-6
जो सप्तऋषी गण तपश्चर्या मे संलग्न थे , उनके द्वारा तथा चीर-प्राचीन देवो ने इसके विषय मे घोषणा की है की यह ब्राह्मण द्वारा ग्रहण की गई कन्या अति सामर्थ्यवान है । परम व्योम मे यह दुर्लभ शक्ति धारण करती है ।

7- ये गर्भा अवपद्यन्ते जगद्‌ यच्चापलुप्यते।
     वीरा ये तृह्यन्ते मिथो ब्रह्मजाया हिनस्ति तान्‌॥ अथर्व 5-17-7
जो गर्भपात ( अवांछनीय या विकासक्रम का क्षीण होना ) होते हैं । जगत मे जो उथल पुथल होती है तथा ( लोग प्रायः ) परस्पर लड़ते-भिड़ते हैं ,उन सबका यह ब्रह्मजाया ( ब्रह्मविद्धया ) नष्ट कर देती है ।


8-उत यत्‌ पतयो दश स्त्रियाः पूर्वे अब्राह्मणाः।
    ब्रह्मा चे द्वस्तमग्रहीत्‌ स एव पतिरेकधा ॥ अथर्व-5-17-8
इस स्त्री ( ब्राह्मीशक्ति ) के पहले दस अब्राह्मण पति ( ब्राह्मण-संस्कारहीन रक्षक अथवा दस-प्राण दस दिक्पाल आदि ) होते हैं । किन्तु जब ब्रह्म चेतना सम्पन्न व्यक्ति ( साधक ) उसको ग्रहण करता है , तो वही उसका एक मात्र स्वामी होता है ।

9-ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो3 न वैश्यः।
  तत्‌ सूर्यः प्रब्रुवन्नेति पञ्चभ्यो मानवेभ्यः ॥ अथर्व 5-17-9
मनुष्यो के पांचों वर्गो ( समाज के सभी विभागो अथवा पाचो तत्वो ) से सूर्योदय यह कहते हुए विचरण करते हैं की ब्राह्मण ही इस का पति है । राजा (क्षत्रिय) तथा वेश्य (व्यापारी) इसके पति नाही हो सकते ।
[ब्रह्म शक्ति केवल ब्रह्म निष्ठों के प्रति आकर्षित हो सकती है । उसका सामान्य प्रयोग भले ही अन्य लोग भी करते हो ]


10-पुनर्वै देवा अददुः पुनर्मनुष्या उत ।
      राजानः सत्यं कृण्वाना ब्रह्म जायां पुनर्ददुः ॥ ऋ 10-109-6 अथर्व 5-17-10
देवताओ और मनुष्यो ने बार-बार यह ब्रह्मजाया (ब्रह्मनिष्ठों) को प्रदान की है । सत्या स्वरूप राजाओ ने भी दुबारा शपथपूर्वक (संकल्पपूर्वक) इस सत्या निष्ठा को उन्हे प्रदान किया है । 
[अन्य वर्ग उस ब्राह्मी चेतना को धारण करके उसको सुनियोजित करने मे असफल हो जाते हैं । अतः वे उसे पुनः ब्रह्मनिष्ठों को सौप देते हैं यभी उसका समुचित लाभ मिलता है ]

11-पुनर्दाय ब्रह्मजाया कृत्वी देवैर्निल्बिषम्‌ ।
      ऊर्जं पृथिव्या भक्तवायो रुगायमुपासते ॥ ऋ 10-109-7 अथर्व 5-17-11
ब्राह्मी विद्धया को पुनः लाकर देवो ने बृहस्पति देव को दोषमुक्त किया है तत्पश्चात पृथ्वी के सारविततम अन्न (उत्पाद) का विभाजन करके सभी सुखपूर्वक यज्ञीय उपासना करने लगे
[दिव्य वाणी व यज्ञीय प्रक्रिया से भूमि पर पदार्थो के वर्गीकरण तथा सदुपयोग का क्रम चल पड़ा । यह प्रक्रिया बार-बार दुहराई जाती है ]

12-नास्य जाया शतवाही कल्याणी तल्पमा शये ।
      यस्मिन राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-12
जिस राष्ट्र मे इस ब्रह्मजाया (ब्रह्मविद्धया) को जड़ता पूर्वक प्रतिबंध मे डाला जाता है , उस राष्ट्र मे सैकड़ो कल्याण को धरण करने वाली जाया (विदद्या) भी सुख की शिया प्रपट नाही कर पाती (फलित होने से वंचित रह जाती है )


13-न विकर्णः पृथुशिरास्तस्मिन्वेश्मनि जायते ।
      यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-13
जिस राष्ट्र मे ब्रह्मविद्धया कोजदता पूर्वक प्रतिबंधित किया जाता है उस राष्ट्र के घरो मे बड़े कान वाले ( बहुश्रुत) तथा विशाल सिरवाले (मेघावी) पुत्र उयपन्न नाही होते ।

14-नास्य क्षत्ता निष्कग्रीवः सूनानामेत्यग्रतः ।
      यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-14
जिस राष्ट्र मे ब्रह्मविदद्या को अज्ञानपूर्वक प्रतिबंधित ( ब्राह्मण से हीन ) किया जाता है उस राष्ट्र के  वीर गले मे स्वर्णाभूषण धारण करके ( गौरव पूर्ण ) लड़कियो अथवा सतपरम्पराओ के सामने नही आते ।

15-नास्य श्वेतः कृष्णकर्णो धुरि युक्तो महीयते ।
      यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-15
जिस राष्ट्र मे ब्रह्मजाया को दुराग्रह पूर्वक प्रतिबंधित किया जाता है , उस राष्ट्र मे श्यामकर्ण (श्रेष्ठ) सफ़ेद घोड़े धुरे मे नियोजित होकर भी प्रशंषित नाही होते
[' अश्व ' शक्ति के प्रतीक हैं । ब्रह्म-विद्धया हीं समाज मे उन्हे श्रेष्ठ प्रयोजन मे नियोजित करने पर भी प्रगति नाही होती ]

16-नास्य क्षेत्रे पुष्करिणी नाण्डीकं जायते बिसम्‌ ।
      यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-16
जिस राष्ट्र मे ब्रह्मविदध्या को जड़ता पूर्वक प्रतिबंधित किया जाता है , उस क्षेत्र मे कमाल के तालाब नाही होते और न ही कमाल के बीज उत्पन्न होते हैं ।
[ससकृतनिष्ठ व्यक्तियों के लिए 'कमल' श्रेष्ठ प्रतीक है । ब्रह्मविध्या हीं समाज मे आदर्श व्यक्तियों का विकास नही होता ]

17-नास्मै पृश्नि वे दुहन्ति ये ऽस्या दोहमुपासते ।
      यस्मिन्‌ राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्या ॥ अथर्व 5-17-17
जिस राष्ट्र मे ब्रह्मजाया को जड़ता पूर्वक प्रतिबंधित किया जाता है उस राष्ट्र मे दूध दुहने के लिए बैठने वाले मनुष्य इस गौ ( पृथ्वी ) से थोड़ा भी (निर्वाह योग्य ) दूध (पोषण) नही निकाल पाते ।

18-नास्य धेनुः कल्याणी नानड्‌वान्त्सहते धुरम्‌ ।
      विजानिर्यत्र ब्राह्मणो रात्रिं वसति पापया ॥ अथर्व-5-17-18
जिस राष्ट्र मे ब्राह्मण विशिष्ट ज्ञान रहित (या स्त्री रहित) होकर रात्री (अज्ञान) मे पाप बुद्धी से निवास करते हैं उस राष्ट्र मे न तो कल्याण करने वाली धेनु (धारक क्षमताए) होती हैं और न भार वहन करने मे समर्थ (राष्ट्र की गाड़ी खीचने वाले ) वृषभ उत्पन्न होते हैं ।


             वेद हिन्दू धर्म के अति प्राचीन ग्रंथ हैं और आज का पिछड़ा हुआ विज्ञान इन वेदो के ज्ञान को सिर्फ समझने का प्रयास कर रहा है । जबकि वेदों के एक-एक शब्द व रहस्य ( विज्ञान ) का ज्ञान  ब्राह्मणो को सदा रहता था । ब्राह्मण अपने इसी ज्ञान से किसी भी राष्ट्र की काया पलट कर सकते हैं । शास्त्रो मे कहा गया है की देवता ब्राह्मण के मुख से ही हव्य और काव्य ग्रहण करते हैं । या वेदमंत्र , यज्ञ या अनुष्ठान प्रभावशाली हो सकते हैं । जब भी कभी ब्राह्मण से यह अधिकार और कर्तव्य मूढ़ता वश छीनने का प्रयास किया जाएगा तब इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं यह इन वेदमत्रो मे बताया गया है । प्रत्येक शब्द ( मंत्र ) का अपना प्रभाव होता है और यह प्रभाव सिर्फ ब्राह्मण के मुख से ही हो सकता है । आज विज्ञान शब्द के रहस्य को समझ्ने का प्रयास कर रहा है और और जब समझेगा तब ब्राह्मण को ही शपथपूर्वक फिर यह विद्धया दे देगा पहले भी कई बार शपथपूर्वक एसा किया गया है जिसको वेदमंत्र  10 मे समझाया गया है ।

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